Published - 14 Oct 2020
भारतीय खाद्यान्न में गेहूं का अपना एक विशिष्ट स्थान है। पिछले 5 वर्षों में दस गुना उत्पादन से भारत पूरे विश्व में गेहूं उत्पादन में दूसरा सबसे बड़ा देश है। अनेक अध्ययनों और शोधों से पता चला है कि भारत खाद्य अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में गेहूं और गेहूं के आटे की भूमिका बढ़ती जा रही है। भारत में परंपरागत रूप से इसकी खेती मुख्यत: उत्तरी भागों में की जाती है। इसमें पंजाब और हरियाणा के मैदानों के उत्तरी राज्यों में इसकी खेती सर्वाधिक होती है। वहीं राजस्थान में भी इसकी खेती अच्छी-खासी होती है।
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आज भारत सभी किस्मों के गेहूं का पर्याप्त निर्यात कर रहा है और आने वाले वर्षों में इसके दानों तथा उपज को बेहतर बनाने के लिए विस्तृत अनुसंधान प्रयास किए जा रहे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कृषि वैज्ञानिक गेहूं की बेहतर उत्पादन देने वाली किस्मों को खोजने का प्रयास कर रहे हैं ताकि देश का उत्पादन बढऩे के साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ सके। इसी कड़ी में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के इंदौर संस्थान की ओर से पूसा तेजस किस्म विकसित की गई है। गेहूं की किस्म पूसा तेजस एचआई 8759 के नाम से जानी जाती है। यह किस्म अपनी विशेषताओं के कारण किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है। इस किस्म से बेहतर उत्पादन प्राप्त कर अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
यह किस्म भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के इंदौर संस्थान की ओर से को वित्तीय वर्ष 2016-17 में किसानों के लिए जारी की गई थी। कठिया या ड्यूरम गेहूं की किस्म एचआई 8759 को उच्च उर्वरता व सिंचित दशाओं के अंतर्गत मध्य क्षेत्र में खेती हेतु पहचाना गया है। यह व्यापक रूप से अनुकूलित उच्च उपजशील कठिया गेहूं जीन प्रारूप है। जिससे कठिया गेहूं की अन्य तुलनीय किस्मों नामत-एचआई 8498, एमपीओ 1215, एचआई 8737 व एचडी 4728 की तुलना में 3.8 प्रतिशत से 12.0 प्रतिशत तक उच्चतर उपज मिलती है। इसकी उपज क्षमता अधिकतम 75.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं औसत उपज 57 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
पूसा तेजस की खेती गेहूं की यह किस्म मध्य भारत के लिए उपयुक्त है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान (कोटा एवं उदयपुर डिवीजन) एवं उत्तरप्रदेश (झांसी डिवीजन) की जलवायु के लिए उपयुक्त पाई गई है।
गेहूं की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए धान की समय से रोपाई आवश्यक है जिससे गेहूं के लिए अक्टूबर माह में खाली हो जाएं। दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि धान में पडलिंग लेवा के कारण भूमि कठोर हो जाती है। भारी भूमि से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई के बाद डिस्क हैरो से दो बार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बनाकर ही गेहूं की बुवाई करना उचित होगा। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर द्वारा एक ही जुताई में खेत पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है।
लाइन में बुआई करने पर सामान्य दशा में 100 किलोग्राम तथा मोटा दाना 125 किलोग्राम प्रति है, तथा छिटकवॉ बुआई की दशा में सामान्य दाना 125 किलोग्राम मोटा-दाना 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। बुआई से पहले जमाव प्रतिशत अवश्य देख ले। राजकीय अनुसंधान केन्द्रों पर यह सुविधा नि:शुल्क उपलबध है। यदि बीज अंकुरण क्षमता कम हो तो उसी के अनुसार बीज दर बढ़ा ले तथा यदि बीज प्रमाणित न हो तो उसका शोधन अवश्य करें। बीजों का कार्बाक्सिन, एजेटौवैक्टर व पी.एस.वी. से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए। सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में रेज्ड वेड विधि से बुआई करने पर सामान्य दशा में 75 किलोग्राम तथा मोटा दाना 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जाना चाहिए।
इसके बाद साधारण दशा में 18 सेमी. से 20 सेमी. एवं गहराई 5 सेमी. तथा विलम्ब से बुआई की दशा में 15 सेमी. से 18 सेमी. तथा गहराई 4 सेमी. पर हल के पीछे कूड़ों में या फर्टीसीडड्रिल द्वारा भूमि की उचित नमी करनी चाहिए। पलेवा करके ही बोना श्रेयकर होता है। यह ध्यान रहे कि कल्ले निकलने के बाद प्रति वर्गमीटर 400 से 500 बालीयुक्त पौधे अवश्य हों अन्यथा इसका उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। विलम्ब से बचने के लिए पंतनगर जीरोट्रिल बीज व खाद ड्रिल से बुआई करें। ट्रैक्टर चालित रोटो टिल ड्रिल द्वारा बुआई अधिक लाभदायक है। बुन्देलखंड (मार व कावर मृदा) में बिना जुताई के बुआई कर दिया जाय ताकि जमाव सही हो सके।
तेजस एचआई 8759 किस्म से गेहूं की उपज लेने पर तीन से पांच सिंचाई करना ही पर्याप्त होता है। इसमें पहली सिंचाई बुआई के 25-30 दिन के अन्दर ताजमूल अवस्था में करनी चाहिए। इसके 60-70 दिन पर दुग्धावस्था में इसकी दूसरी सिंचाई करनी चाहिए तथा तीसरी सिंचाई बुआई के 90-100 दिन पर दाने पड़ते समय करनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई की जा सकती है।
खाद उर्वरक का प्रयोग संतुलित उर्वरक एंव खाद का उपयोग दानों के श्रेष्ठ गुण तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अति-आवश्यक है। अत: 120 किग्रा. नत्रजन (आधी मात्रा जुताई के साथ) 60 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर सिंचाई दशा में पर्याप्त है। इसमें नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद टापड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए। असिंचित दशा में 60:30:15 तथा अर्ध असिंचित में 80:40:20 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश डालना चाहिए।
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