प्रकाशित - 17 Jun 2022
भारत में जलवायु के आधार पर कई प्रकार की खेती की जाती है। भारतीय कृषि को जलवायु के हिसाब से अलग-अलग विभाजित किया गया है। मुख्य रूप से यहां की खेती को तीन सीजन में बांटा गया है। पहली रबी, दूसरी खरीफ और तीसरी जायद सीजन की खेती है। इसके लिए फसलों का वर्गीकरण भी किया गया है जिससे फसल विशेष की आवश्यकता के अनुसार उसकी खेती की जा सके। जैसे- जलवायु, मिट्टी की प्रकृति और सिंचाई के पानी की उपलब्धता यह मुख्य रूप से फसल के वर्गीकरण को प्रभावित करने वाले कारण है। जैसे- पानी की उपलब्धता होने पर तीनों सीजन में मक्का की खेती की जा सकती है जबकि मक्का को खरीफ सीजन की फसल में वर्गीकृत किया गया है। मौसम पर आधारित भारतीय कृषि को तीन फसली सीजन में बांटा गया है। जो इस प्रकार से है-
वह फसलें जो शीत ऋतु में बोई जाती है और ग्रीष्म ऋतु में काटी जाती है। ऐसी फसलों को रबी की फसल कहा जाता है। भारत में समान्यत: रबी की फसल अक्टूबर से नवंबर में बोई जाती है और मार्च-अप्रैल में काटी जाती हैं। इन फसलों की बुवाई के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि पकते समय इनके लिए गर्म वातावरण होना जरूरी है। रबी की फसलों के अंतर्गत आने वाली प्रमुख फसलों में गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसों, राई बरसीम, आलू, मसूर, लुसर्न आदि फसलें आती हैं।
खरीफ की फसल वे होती है जो वर्षा शुरू होने के साथ बोई जाती हैं। इन्हें वर्षाकाल की फसल भी कहा जाता है। इन फसलों की बुवाई करते समय अधिक तापमान एवं आर्द्रता की आवश्यकता होती है। जबकि पकते समय इसके लिए शुष्क वातावरण का होना जरूरी है। ऐसी फसलें दक्षिण पश्चिमी मानसून में शुरू होने के साथ बोई जाती है सामान्यत: इनकी बुवाई 15 जून से 15 जुलाई तक की जाती है और सितंबर-अक्टूबर तक इनकी कटाई कर ली जाती है। इन फसलों की अंतर्गत ज्वार, बाजरा, धान, मक्का, मूंग, सोयाबीन, लोबिया, मूंगफली, कपास, जूट, गन्ना, तम्बाकू आदि फसलें आती हैं।
जायद की फसलें वे फसलें कहलाती हैं जो रबी और खरीफ के बीच के समय में बोई जाती है जिस रबी की कटाई हो जाती है और खेत खाली हो जाते हैं। यह लगभग डेढ माह का समय होता है। इस अल्पकालीन ग्रीष्म ऋतु वाले समय में जायद फसलों की बुवाई की जाती है। भारत में प्राय: ऐसी फसलों को मार्च की बुवाई मार्च में की जाती है और जून तक इन्हें काट लिया जाता है। जायद की खेती उन क्षेत्रों में काफी अच्छी तरह से की जा सकती है जहां सिंचाई की पर्याप्त सुविधा हो। जायद की फसलों के अंतर्गत अधिकांशत: सब्जियों की खेती की जाती है। इसमें खरबूजा, ककड़ी, खीरा, करेला आदि की खेती की जाती है। इसके अलवा दलहन फसल मूंग, उड़द, कुल्थी भी उगाई जाती हैं।
भारत में भौगोलिक स्थितियों में विभिन्नताएं पाई जाती हैं। कहीं मैदानी भूमि है तो कहीं पथरीली तो कही पहाड़ीनुमा भूमि पाई जाती है। इसी प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु विभिन्नता भी देखने को मिलती है। इस कारण से भारत में कई प्रकार की खेती की विधियां प्रचलित हैं, जो इस प्रकार से है-
इस तरह की खेती जमीन के छोटे टुकड़ों पर होती है। इस तरह की खेती में आदिम औजार और परिवार या समुदाय के श्रम का इस्तेमाल किया जाता है। यह खेती मुख्य रूप से मानसून पर और जमीन की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भर करती है। किसी विशेष स्थान की जलवायु को देखते हुए ही किसी फसल का चुनाव किया जाता है। इसे ‘कर्तन दहन खेती’ भी कहा जाता हैं। इसके लिए जमीन के किसी टुकड़े की वनस्पति को पहले काटा जाता है और फिर उन्हें जला दिया जाता है। उससे मिलने वाली राख को मिट्टी में मिला दिया जाता है और फिर उस पर फसल उगाई जाती है। इस तरह की खेती से बस इतनी उपज हो जाती है जिससे परिवार का पेट भर सके। दो चार बार खेती करने के बाद उस जमीन को परती छोड़ दिया जाता है और फिर एक नई जमीन को खेती के लिए तैयार किया जाता है। इससे पहले वाली जमीन को इतना समय मिल जाता है कि प्राकृतिक तरीके से उसकी उर्वरता वापस लौट जाए। यह एक व्यापक रूप से प्रचलित कृषि तकनीक है जो पूरे भारत में देखी जा सकती है। निर्वाह कृषि में सिंचाई सुविधाओं की कमी, सूखा तथा बाढ़ की क्षति को देखते हुए ऐसी कृषि में उन्नत बीज उर्वरकों एवं कीटनाशक का कम इस्तेमाल किया जाता है।
बागवानी कृषि के अंतर्गत ऐसी फसलें आती है जो लंबी अवधि की होती है। इसके लिए बहुत बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होती है। इस श्रेणी में रबड़, चाय, नारियल, कॉफी, कोको, मसाले फसलों और फलों को शामिल किया जा सकता है। इस प्रकार की कृषि के लिए बहुत अधिक पूंजी एवं श्रम की आवश्यकता है। कई कंपनियों एवं कॉरपोरेट घरानों द्वारा बड़ी मात्रा में जमीन को लीज पर लेकर ऐसी कृषि की जाती है। जबकि बागवानी में केवल एक फसल का उत्पादन ही किया जाता है जैसे- चाय बगान। केरल, असम, कनार्टक और महाराष्ट्र में बागान कृषि की जाती है इसमें एक ही फसल बोई जाती है।
गहन कृषि को सघन कृषि भी कहा जाता है। गहन कृषि यानि सघन कृषि या सघन खेती या सघन सस्यन कृषि उत्पादन की वह प्रणाली है जिसमें कम जमीन में अधिक परिश्रम, पूंजी, उर्वरक या कीटनाशक आदि डालकर अधिक उत्पादन लिया जाता है। इसमें एक ही भूमि पर वर्ष में कई फसलें बोई जाती हैं। भारत में घनी आबादी वाले क्षेत्रों में इस प्रकार की कृषि देखी जा सकती है। यह हर संभव प्रयास करके पूंजी एवं श्रम का उपयोग करके एक निश्चित समय अंतराल के दौरान अधिकतम संभव प्रयास के द्वारा उत्पादन को अधिकतम करने का प्रयास है। सामान्यत: 200 प्रतिशत से अधिक सस्य गहनता वाला क्षेत्र को गहन (सघन) कृषि क्षेत्र माना जाता है।
स्थानान्तरी कृषि अथवा स्थानान्तरणीय कृषि कृषि का एक प्रकार है जिसमें कोई भूमि का टुकड़ा कुछ समय तक फसल लेने के लिए चुना जाता है और उपजाऊपन कम होने के बाद इसका छोडक़र कर दूसरे टुकड़े को ऐसी ही कृषि के लिए चुन लिया जाता है। इससे पहले के चुने गए टुकड़े पर वापस प्राकृतिक वनस्पति का विकास होता है। आम तौर पर 10 से 12 वर्ष, और कभी कभी 40-50 की अवधि में जमीन का पहला टुकड़ा प्राकृतिक वनस्पति से पुन: आच्छादित हो कर सफाई और कृषि के लिए तैयार हो जाता है। बार-बार स्थान्तरित होने के कारण इसे झूम कृषि भी कहा जाता है। इसके पर्यावरणीय प्रभावों को देखते हुए भारत के कुछ हिस्सों में इस पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। यह कृषि अभ्यास मुख्य रूप से जनजातीय समूहों द्वारा कंद और जड़ों वाली फसलों को विकसित करने के लिए उपयोग किया जाता है। स्थानीय रूप से इस कृषि को पूर्वोत्तर राज्यों में झूम, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में ‘ पौद ‘, केरल में ‘ओनम’, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में ‘बीवर’ , ‘मशान’, ‘पेडा’ तथा ‘बीरा’ और दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में ‘वालरा’ कहा जाता है।
व्यापक खेती या व्यापक कृषि ( गहन खेती के विपरीत ) एक कृषि उत्पादन प्रणाली है जो खेती की जा रही भूमि क्षेत्र के सापेक्ष श्रम, उर्वरक और पूंजी के छोटे इनपुट का उपयोग करती है। यह आधुनिक प्रकार की खेती है जिसे बड़े पैमाने पर विकसित दुनिया में और भारत के कुछ हिस्सों में देखा जा सकता है। इस पद्धति में विस्तृत क्षेत्र में मशीनों द्वारा यांत्रिक विधि से खेती की जाती है जिसमें मानव श्रम की कम आवश्यकता होती है लेकिन इस प्रति व्यक्ति उत्पादन बहुत अधिक होता है। कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों/ देशों में इस प्रकार की कृषि अधिक प्रचलन में है।
वाणिज्यिक कृषि इसे व्यापारिक खेती भी कहते हैं। वाणिज्कि खेती का लक्ष्य एक उच्च उपज वाली फसल का उत्पादन करना है जिससे इसे दूसरे क्षेत्रों व देशों को निर्यात किया जा सकें। इस श्रेणी में गेहूं, कपास, गन्ना, तंबाकू औ मक्का को रखा जा सकता है। बता दें कि उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में नकद बिक्री के लिए ये फसलें उगाई जाती हैं।
इस प्रकार की खेती देश के शुष्क और रेगिस्तानी इलाकों में की जाती है। भारत में इस प्रकार की खेती को उत्तर पश्चिमी और मध्य भारत समेत शुष्क भूमि इलाकों में देखा जा सकता है। इसके अंतर्गत ज्वार, बाजरा और मटर जैसी कम पानी वाली फसलों को बोया जाता है।
भारत के कई इलाके ऐसे हैं जिनमेें मानूसन में भारी बारिश, बाढ़ से प्रभावित रहते हैं। ऐसे क्षेत्रों में अधिक पानी चाहने वाली फसलों जैसे- चावल, जूट तथा गन्ना की खेती की जाती है। भारत में प्राय: अच्छी तरह से सिंचित क्षेत्रों, जैसे पूर्वोत्तर भारत और पश्चिमी घाट मेें इस प्रकार देखी जा सकती है।
एक्वापोनिक्स तकनीक में पानी के टैंको या छोटे तालाबों को तैयार किया जाता है। इसमें मछलियों को रखा जाता है। इन मछलियों के मल से पानी में उपस्थित अमोनियों की मात्रा में वृद्धि होती है। इस पानी को तैयार किए गए टैंक को डाल दिया जाता है। इस टैंक में मिट्टी की जगह प्राकृतिक फिल्टर को उपयोग में लाया जाता है, तथा पौधे मिट्टी की जगह पानी से आवश्यक पोषक तत्वों को सोखते है। इसके बाद इस पानी को मछलियों के टैंक में वापिस डाल दिया जाता है। यह क्रिया बार-बार दोहराई जाती है, जिससे पानी की बर्बादी नहीं होती है। इस तकनीक के इस्तेमाल से फसल को रेगिस्तानी, लवणीलय, रेतीली, बर्फीली जैसी जगहों पर आसानी से उगाया जा सकता है। इससे देश में स्थित लाखों हेक्टेयर बंजर भूमि को उपयोग में ला सकते है। बता दें कि भारत में एक्वापोनिक्स का फॉर्म बैंगलोर में स्थित है। यह भारत का सबसे बड़ा और सबसे पहला फॉर्म है, जिसे माध्वी फॉर्म कहा जाता है।
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