फरवरी माह में खेत में खड़ी फसलों की देखभाल - गेहूं, जौ, चना व मटर

Share Product Published - 14 Feb 2020 by Tractor Junction

फरवरी माह में खेत में खड़ी फसलों की देखभाल - गेहूं, जौ, चना व मटर

फरवरी माह में गेहूं, जौ, चना मटर की फसल की देखभाल कैसे करें

देशभर के जागरूक किसान भाइयों का ट्रैक्टर जंक्शन पर स्वागत है। फरवरी का महीना शुरू हो चुका है। देशभर में अब तक मौसम मेहरबान है। किसानों के खेत फसलों से लहलहा रहे हैं। बसंत पंचमी के बाद चारों ओर पीले फूल खिले हुए हैं और मौसम में ठंड धीरे-धीरे कम हो रही है। किसानों को अच्छी पैदावार लेने के लिए फरवरी महीने में मौसम के उतार-चढ़ाव का ध्यान रखना होगा। अचानक बढऩे वाले तापमान से अपनी फसलों की सुरक्षा सबसे जिम्मेदारी वाला काम है। आधुनिक कृषि विधियों की जानकारी से किसान फसलों का उत्पादन बेहतर तरीके से बढ़ा सकता है। आज हम फरवरी महीने में गेहूं, जौ, चना व मटर की फसल में ध्यान रखने वाली प्रमुख सावधानियों पर चर्चा करते हैं।

 

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फरवरी में गेहूं की फसल की देखभाल

  • समय पर बोई गई गेहूं की फसल में फूल आने लगते हैं। इस दौरान फसल की सिंचाई बहुत आवश्यक होती है। गेहूं में समय से बुवाई की दर से तीसरी सिंचाई गांठ बनने (बुवाई से 60-65 दिन बाद) की अवस्था तथा चौथी सिंचाई फूल आने से पूर्व (बुवाई के 80-85 दिनों बाद) एवं पांचवी सिंचाई दुग्ध अवस्था (110-115 बाद) में करें। 
  • पिछेती या देर से बोई गई गेहूं की फसल में कम अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसलिए फसल में अभी क्रांतिक अवस्थाओं जैसे शीर्ष जड़े निकलना, कल्ले निकलते समय, बाली आते समय, दानों की  दूधिया अवस्था एवं दाना पकते समय सिंचाई करनी चाहिए। मार्च या अप्रैल में अगर तापमान सामान्य से अधिक बढऩे लगे तो एक या दो अतिरिक्त सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। 
  • पौधों की उचित बढ़वार एवं विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से पौधों की वृद्धि, जनन क्षमता एवं कार्यिकी प्रभावित होती है। भारतीय मृदा में जस्ते की औसम मात्रा 1 पीपीएम के लगभग पाई जाती है। मृदा में जस्ते की मात्रा 0.5 पीपीएम से कम होने पर इसकी कमी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। पौधों में जस्ते की कमी की क्रांतिक मात्रा 20 पीपीएम होती है। जस्ता के प्रयोग की मात्रा जस्ते की कमी, मृदा प्रकार एवं फसल के प्रकार आदि पर निर्भर करती है। खड़ी फसल में कमी के लक्षण दिखाई देने पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल का छिडक़ाव 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार करना चाहिए। 
  • लोह की कमी या कम कार्बनिक पदार्थ वाली चूनेदार, लोहा-पीलापन और क्षारीय मृदा में फसल उत्पादन में मुख्य रूप से बाधा है। मृदा एवं पौधों में इसकी क्रांतिक मात्रा क्रमश:4.5 एवं 50 पीपीएम है। लोहे की कमी की पूर्ति पर्णीय छिडक़ाव से भी की जा सकती है। गेहूं, धान, गन्ना, मूंगफली, सोयाबीन आदि में 1-2 प्रतिशत आयरन सल्फेट का पर्णीय छिडक़ाव, मृदा अनुप्रयोग की अपेक्षा अधिक लाभकारी पाया गया है। मृदा में अनुप्रयोग की मात्रा (150-150 किलोग्राम/हैक्टेयर आयरन सल्फेट) पर्णीय छिडक़ाव की अपेक्षा अधिक होने के कारण मृदा अनुपयोग आर्थिक रूप से लाभप्रद नहीं है। लोहे की कमी को दूर करने में आयरन-चिलेट अन्य अकार्बनिक स्त्रोतों की अपेक्षा अधिक लाभकारी होती है। परंतु महंगे होने के कारण किसान इसका प्रयोग नहीं कर पाते हैं।

 

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फरवरी में जौ की फसल की देखभाल

  • जौ की फसल में दूसरी सिंचाई गांठ बनने की अवस्था (बुवाई के 55-60 दिनों बाद) में और तीसरी सिंचाई दूधिया अवस्था (बुवाई के 95-100 दिनों बाद) में करें। जौ की फसल में निराई-गुडाई का अच्छा प्रभाव होता है। खेत में यदि कंडुवा रोगग्रस्त बाली दिखाई दे तो उसे निकालकर जला दें। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में अधिक संख्या में हल्की सिंचाई देना, ज्यादा गहरी एवं कम सिंचाई देने की अपेक्षाकृत उत्म माना जाता है। धारीदार या पीता रतुआ पत्तों पर पीले, छोटे-छोटे कील कतारों में, बाद में पीले रंग के हो जाते हैं। कभी-कभी ये कील-पत्तियों के डंठलों पर भी पाए जाते हैं। इसलिए रतुआरोधी प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिए। काला रतुआ लाल भूरे से लेकर काले रंग के लंबे कील पत्तियों के डंठल पर पाए जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए प्रति हैक्टेयर 2 किग्रा जिबेन (डाइथेन जेड-78) का छिडक़ाव करें। 500-600 लीटर घोल एक हैक्टेयर क्षेत्रफल के लिए काफी होता है।
  • जौ एवं गेहूं के जिन खेतों में अधिक वर्षा का पानी भर जाता है, उनमें पानी निकालने के बाद नाइट्रोजन के लिए सी.ए.एन. के डालने से कुछ मात्रा में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है। अधिक पानी के भर जाने से ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, इसलिए सीएएन की सिफारिश की जाती है।

 

मटर की फसल की देखभाल

  • मटर की फसल में चूर्णिल आसिता रोग के कारण पत्तियों तथा फलियों पर सफेद चूर्ण सा फैल जाता है। रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई देते ही सल्फरयुक्त कवकनाशी जैसे सल्पफेक्स 2.5 किग्रा/हैक्टेयर या 3.0 किग्रा/हैक्टेयर घुलनशील गंधक या कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम या ट्राइडोमोपपर्क (80 ई.सी.) 500 मि.ली. की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोलकर 15 दिनों के अंतराल में 2-3 छिडक़ाव करें। 
  • रतुआ रोग से पौधों की वृद्धि रूक जाती है। पीले धब्बे पहले पत्तियों पर और फिर तने पर बनने लगते हैं। धीरे-धीरे ये हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए हेक्साकोनाटोजा 1 लीटर या प्रोपीकोना 1 लीटर या डाइथेन एम-45 को 2 किग्रा हैक्टेयर की दर से 600-800 लीटर पानी में घोलकर 2-3 बार छिडक़ाव करें एवं उचित फसल चक्र अपनाएं।
  • फलीबेधक कीट फलियों में छेद बनाकर बीजों को नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए फलियों पर सूक्ष्म छिद्रों से इसके मौजूद होने का पता लग जाता है। फली निकलने की अवस्था में फल पर इमिडाक्लोप्रिड 0.5 प्रतिशत या डाइमेथोएट 0.03 प्रतिशत का 400-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करें। शीघ्र पकने वाली प्रजातियों का उपयोग एवं समय से बुवाई फली बेधक के प्रकोप से बचने में सहायक होते हैं।
  • माहूं कीट पत्तियों व मुलायम तनों से रस चूसकर एक ऐसा चिपचिपा पदार्थ भारी मात्रा मे स्त्रावित करता है जिसके द्वारा काली फफूंद का आक्रमण इन भागों में हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए 0.05 प्रतिशत मेटासिस्टाक्स या 0.05 प्रतिशत रोगोर के घोल का छिडक़ाव 15-20 दिनों के अंतराल पर कीटों के दिखाई देते ही एक या दो बार आवश्यकतानुसार करें।
  • देर से बोई गई मटर की फसल में फली आने पर सिंचाई करें। अगेती फसल पकने की अवस्था में होगी, अत: समय पर कटाई करें।

 

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चने की फसल की देखभाल

  • चने में आवश्यकता हो तो फूल आने से पूर्व ही सिंचाई करें। फूल आते समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झडऩे से हानि होती है। चने की फसल बारानी क्षेत्रों में जल की आवश्यकता को मिट्टी की गहराई में संचित नमी से पूरा करती है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने तथा जाड़े की वर्षा न होने पर बुवाई के 45 दिनों बाद सिंचाई करना लाभप्रद होता र्है। असिंचित क्षेत्रो में चने की कटाई फरवरी के अंत में होती है।
  • चने की फसल में झुलसा रोग की रोकथाम के लिए जिंक मैग्जीन कार्बामेंट 2.0 किग्रा अथवा जीरम 90 प्रतिशत 2 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से छिडक़ाव करें।
  • फेरोमोन ट्रैप ऐसा रसायन है जो अपने ही वर्ग के कीटों को संचार द्वारा आकर्षित करता है। मादा कीट में जो हार्मोन निकलता है यह उसी तरह की गंध से नर कीटों को आकर्षित करता है। इन रसायनों को सेक्स पफेरोमोन ट्रैप कहते हैं। इसका उपयोग चने के फलीछेदक कीट के फसल पर प्रकोप करने की समय की जानकारी के लिए किया जाता है। पफेरोमोन का रसायन एक सेप्टा (कैन्सूल) में यौन जाल में रख दिया जाता है। 5-6 फलीछेदक कीट के नर यौन जाल में फंसने पर चने की फसल पर कीटनाशी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। 20 पफेरोमोन ट्रैप प्रति हैक्टेयर की दर से लगाएं।
  • यदि चने के खेत में चिडिय़ा बैठ रही हो तो किसान भाई समझ लें कि चने में फली छेदक का प्रकोप होने वाला है। इन रसायनों का प्रयोग तभी करना चाहिए जब चना में फली छेदक का प्रकोप अधिक हो। उसके नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 ई.सी. 750 मि.ली. या क्यूनालफॉस 25 ई.सी. 1.50 लीटर या इंडेक्सोकार्ब 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी या क्वीनालफॉस 25 ई.सी. 1-1.4 प्रति मि.ली. पानी या स्पाइनोसैड 45 प्रतिशत, 0.2 मि.ली. प्रति लीटर पानी या इमामेक्टीन बेंजोएट 5 प्रतिशत, 0.4 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडक़ाव अवश्य करें। 
  • चने में फलीछेदक कीट नियंत्रण के लिए न्यूक्लियर पालीहेड्रोसिस वाइरस 250 से 350 शिशु समतुल्य 600 लीटर प्रति पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडक़ाव फरवरी के अंतिम सप्ताह में करें। चने में 5 प्रतिशत एन.एस.के.ई. या 3 प्रतिशत नीम ऑयल तथा आवश्यकतानुसार कीटनाशी का प्रयोग करें।

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