Published - 31 Dec 2020 by Tractor Junction
गाजर एक कंदवर्गीय रबी फसल है। इस मौसम में गाजर की उत्पादन काफी बढ़ जाता है। सर्दी में तो गाजर की बहार सी आई रहती है। इसकी सबसे अधिक मांग ज्यूज सेंटर पर होती है। सर्दी में गाजर का ज्यूस पीना काफी फायदेमंद रहता है। गाजर से कई तरह की रेसीपी बनाई जाती है जिसमें गाजर का हलवा प्रमुख है। इसके अलावा इसे कच्चा सलाद के रूप में उपयोग किया जाता है। वहीं सब्जी के रूप में भी इसे पकाकर खाया जाता है। सर्दियों के मौसम में गाजर का कच्चा सलाद के रूप में खाना या ज्यूस बनाकर पीना सेहत के लिए काफी अच्छा रहता है। गाजर शरीर में खून की कमी को पूरा करने में मदद करता है। किसान भाइयों को बाजार की मांग को देखते हुए इसके बेहतर उत्पादन पर ध्यान देना चाहिए। मौसम परिवर्तन के कारण गाजर की फसल में कई प्रकार के कीट और रोगों का प्रकोप दिखाई देता है। यदि इसका समय पर नियंत्रण नहीं किया जाए तो उपज में भारी कमी आ जाती है। आइए जानते हैं गाजर को कौन-कौन से कीट व रोग हानि पहुंचते हैं और इसके नियंत्रण के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए।
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इस रोग से पौधों पर सफेद चूर्ण या पाउडर जमा हो जाता है। इससे पौधे पीले होकर कमजोर हो जाते हैं और जल्दी पक जाते हैं। इससे उपज में कमी आती है। अजवाइन के पौधों में यह रोक कवक के माध्यम से फैलता है। रोग लगने पर शुरुआत में पौधे की पत्तियों पर सफेद रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।
रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक की उचित मात्रा का छिडक़ाव करना चाहिए। इस रोग के नियंत्रण के लिए 25 किलोग्राम सल्फर डस्ट का प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें। जरूरत पडऩे पर 15 दिनों के बाद दुबारा दवा का छिडक़ाव किया जा सकता है।
इस रोग के लक्षण पत्तियों और फूलों वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं। रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं। पत्ती की सतह पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार, भूरा या काला हो जाता है। ये दाग चारों तरफ से घेर लेते हैं, फलस्वरूप पत्तियां झुलस जाती हैं। फूल वाले भाग बीज बनने से पहले ही सिकुड़ जाते हैं।
रोकथाम के उपाय : इसकी रोकथाम के लिए बुवाई के समय बीज बीजों थायरम कवकनाशी से उपचारित करना चाहिए। इसके बाद ही इसकी बुवाई करनी चाहिए।
इस रोग के कारण बीज के अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते हैं। तने का पिछला भाग जो जमीन की सतह से लगा रहता है, गल जाता है और पौधे वहीं से टूटकर गिर जाते हैं।
रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए बीज को बोने से पहले कार्र्बेन्डाजीम फफंूदनाशी 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
इस रोग का प्रकोप विशेष रूप से गूदेदार जड़ों पर होता है। इसके कारण जड़े सडऩे लगती हैं। ऐसी मिट्टी में जिनमें जल निकास की उचित व्यवस्था नहीं होती है वहां इस रोग के होने की संभावना अधिक रहती है।
रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जल निकास का उचित प्रबंधन करना चाहिए और रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का बुरकाव नहीं करना चाहिए।
इस रोग में पौधे के पत्तों, तनों और डंठलों पर सूखे धब्बे हो जाते हैं। कभी-कभी पूरा पौधा ही सूख कर खराब हो जाता है। फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में दिखाई देता है। इसके बाद कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और फल को सड़ा देती है।
रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए थायरम 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके ही बोए। रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेडाजिम 50 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिडक़ाव करें। आवश्यकता पडऩे पर 15-20 दिनों के भीतर दुबारा छिडक़ाव करें।
गाजर की खेती में ज्यादा सिंचाई के बाद अधिक मात्रा में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल करने से जड़ों में दरारें पड़ती हैं। इसलिए नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल कम करना चाहिए।
इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाकर रहते हैं और जिससे पौधे मर जाते हैं। परिणामस्वरूप फसल नष्ट होने लगती है।
रोकथाम के उपाय : इसकी रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफॉस 20 ग्राम 2.47 लीटर की मात्रा सिंचाई के पानी के साथ ड्रॉप (बूंद-बूंद) में दें। इससे पूरे खेत में कीटनाशक जमीन में जाकर कीट को प्रभावित करेगा। जैविक फफूंदनाशी बुवेरिया बेसियाना एक किलो या मेटारिजियम एनिसोपली एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बिखेर दें।
सूत्रकृमि सूक्ष्म कृमि के समान जीव है, जो पतले धागे की तरह होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है। इन का शरीर लंबा व बेलनाकार होता है। सूत्रकृमि पौधे की जड़ों को गांठों में परिवर्तित कर देते हैं जिससे पौधा जल और पोषक तत्त्व लेने की अपनी क्षमता खो देता है।
रोकथाम के उपाय : कृमिसूत्र से बचने का एक उपाय फसल चक्र है। इसमें ऐसी फसलों का चयन किया जा सकता है जिसमें सूत्रकृमि की समस्या नहीं होती हो। ये फसलें- पालक, चुकंदर, च्वार, मटर, मक्का, गेहूं आदि हैं। सूत्रकृमि के जैविक नियंत्रण के लिए 2 किलो बर्टिसिलियम क्लैमाइडोस्पोरियम या 2 किलो पैसिलोमयीसिस लिलसिनस या 2 किलो ट्राइकोडर्मा हरजिएनम को 100 किलो अच्छी सड़ी गोबर के साथ मिलाकर प्रति एकड़ की दर से अंतिम जुताई के समय भूमि पर मिल देना चाहिए।
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