Published - 21 Jan 2022
मौसम में निरंतर बदलाव देखने को मिल रहा है। कभी कोहरा तो कभी शीतलहर का असर तो कहीं पर बारिश के कारण फसलों को नुकसान हो रहा है। इसी के साथ इस साल सरसों की फसल को कई प्रकार के कीट और रोगों का प्रकोप होने का अंदेशा बना हुआ है। वहीं कई किसानों की सरसों की फसल कीट व रोगों के प्रभाव में आई हुई हैं। यदि आप भी किसान है और आपने सरसों की फसल बो रखी है तो ये खबर आपके बहुत काम की है। मौसम में बदलाव के साथ ही फसलों पर कीट और रोगों का प्रकोप बन जाता है। ऐसे में किसानों को समय रहते इसके नियंत्रण के उपाय कर लेने चाहिए ताकि संभावित हानि से बचा जा सके। आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से किसानों को सरसों की फसल को कीट व रोगों से बचाने की जानकारी दे रहे हैं। आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई ये जानकारी हमारे किसान भाइयों के लिए लाभकारी होगी।
सरसों की फसल में चेंपा या माहू, आरामक्खी, चितकबरा कीट, मटर का पर्ण सुरंगक कीट आदि कीटों का प्रकोप देखने को मिलता है। सबसे पहले हमें इन कीटों की पहचान कर लेनी चाहिए और इसके बाद इसके नियंत्रण उपाय करने चाहिए।
सरसों का माहू छोटा, लंबा व कोमल शरीर वाला कीट होता है। प्रौढ़ माहूं दो अवस्थाओं में पाया जाता है- पहला पंखरहित और दूसरा पंखसहित। पंखरहित प्रौढ़ 2 मि.मी. लंबे, गोलाकार व हरे रंग के या हल्के हरे पीले रंग के होते है। पंखसहित प्रौढ़ पीले उदर वाले व पंख पारदर्शी होते हैं। शिशु पंखरहित अवस्था के समान होते हैं, परंतु आकार में छोटे होते हैं। दो नलीनुमा संरचनाएं (कोर्निक्ल्स) उदर के अंतिम भाग में उपस्थित होती है।
ये कीट दिसंबर के अंतिम सप्ताह में प्रकट होते हैं और मार्च के अंत तक सक्रिय रहते हैं और मार्च के अंत तक विभिन्न भागों जैसे- पुष्पक्रम, पत्ती, तना, टहनी व फलियों से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं। ये कीट समूहों में रहते हैं व तीव्रता से वंशवृद्धि करते हैं। माहूं पहले फसल की वानस्पतिक कलिका पर प्रकट होते हैं व धीरे-धीरे पूरे पौधे को ढक लेते हैं। ये कीट मधुस्राव निकालते हैं और पौधों पर काले कवक का आक्रमण हो जाता है।
माहूं कीट के प्रभाव से तना व पत्तियां काली हो जाती हैं, जिससे पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा आती है। इस प्रकार यह कीट उपज व तेल की मात्रा में कमी करता है। बादालयुक्त व ठंडा मौसम इसकी वंशवृद्धि के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है।
आरा मक्खी का प्रकोप भी सरसों की फसल में देखने को मिलता है। इस कीट की प्रौढ़ मक्खी 8-11 मि.मी. लंबी, पीले-नारंगी रंग की ततैया की तरह होती है। इसके पंख धूसर रंग के व काली शिराएं लिए हुए होते हैं। इसका अंडरोपक दांतेदार व आरिनुमा होता है इसलिए इसे आरा मक्खी कहते हैं। सर व टांगे काली होती है। इसकी सुंडी गहरे हरे रंग की होती है, जिसकी पीठ पर पांच लंबवत धारियां होती है।
आरा मक्खी मुख्य रूप से फसल की पौधावस्था में ही नुक्सान पहुंचाती है। सूंडी, पत्तियों को काटकर उनमें अनियमित आकार के छेद कर देती हैं। अधिक प्रकोप की अवस्था में पौधे को कंकालित कर देती हैं। फसल में आक्रमण पौधावस्था में अधिक होता है और 3-4 सप्ताह पुरानी फसल में ज्यादा नुकसान होता है। मध्य जलवायु और कम आर्द्रता वाला मौसम इसकी वंशवृद्धि के लिए अनुकूल होता है।
इस कीट की प्रौढ़ मक्खी छोटी काले रंग की होती है और इसका सिर पिला होता है। प्रौढ़ मक्खी की लंबाई 1.5 मि.मी., पंख विन्यास लगभग 4 मि.मी. व घरेलू मक्खी के समान परंतु आकार में छोटी होती है। नए मेगेट्स कीट धूसर सफेद रंग के होते हैं और इनके मुखांग काले भूरे रंग के होते हैं। पूर्ण विकसित कीट हरा पीला रंग का लगभग 3 मि.मी. चौड़ा, जिनका मध्य भाग मोटा और आगे से चपटा होता है। कीट पत्ती में सुरंग के अंदर रहता है और सुरंग में ही कृमिकोष में चला जाता है।
पौधे की पत्तियों में प्रौढ़ मादा के अंडरोपण से अंडे देने के लिए छोटे-छोटे छेद करती है। प्रौढ़ मादा व नर इन छेदों से निकलने वाले रस को चूसते हैं। ये कीट पत्ती के पैरेनकाइमा ऊतकों को खाकर टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बनाते हैं। अत्यधिक ग्रसित पत्तियां पीली होकर गिर जाती है व उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अधिक प्रकोप की दशा में ग्रसित पत्तियां छितर जाती हैं। पौधों का ओज प्रभावित होता है और पुष्प एवं फलन गतिविधियां प्रभावित होती है।
चितकबरा कीट की अपनी प्रौढ़ अवस्था में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इस प्रौढ़ कीट के शरीर के ऊपर काले व चमकीले नारंगी रंग के धब्बे होते हैं। प्रौढ़ 6.5-7.0 मि.मी. चौड़ा व पूर्ण विकसित होता है। यह कीट की शिशु अवस्था में 4 मि.मी. लंबा व 2.6 मि.मी. चौड़ा होता है। इन पर भूरी धारियां पाई जाती हैं। पहली व दूसरी अवस्था शिशु कीट का रंग चमकीला नारंगी और तीसरी व चौथी अवस्था का रंग लाल होता है।
ये कीट फसल के छोटे-छोटे पौधों को या पौध अवस्था में अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधे की पत्तियों एवं प्ररोह से रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। फसल की दो पत्ती अवस्था में नुक्सान होने पर ग्रसित उपरी भाग मुरझाकर सुख जाता है। वानस्पतिक अवस्था में प्रकोप के समय पत्तियों पर सफेद धब्बे हो जाते हैं। पौधे का विगलन हो जाता है व पौधे पूर्णत-सुख जाते हैं। दोनों मामलों में फसल की दोबारा बुआई आवश्यक हो जाती है। यह कीट फली बनने व पकने की अवस्था में भी आक्रमण करता है, जिससे फलियां व दाने सिकुड़ जाते हैं। खलिहानों में कटी हुई फसल पर इन कीटों का आक्रमण व हानि को देखा जा सकता है। इस प्रकार यह कीट उपज व तेल की मात्रा में कमी करता है। मध्यम तापमान 20 से 40 डिग्री सेल्सियस व कम आर्द्रता इस कीट के गुणन के लिए उपयुक्त है।
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