Published - 16 May 2022 by Tractor Junction
लीची एक बहुत ही स्वादिष्ट और शीतलता प्रदान करने वाला फल है। इसका उत्पादन देश के कई राज्यों में किया जाता है। इनमें जम्मू कश्मीर, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में होती है। लेकिन इसकी बढ़ती मांग देखते हुए अब बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में इसकी खेती होने लगी है। गर्मियों में लीची के पेड़ पर फल आने शुरू हो जाते हैं। इसमें अप्रैल व मई में फल आने लगते हैं। फल आने के साथ ही इसमें कीटों और रोगों का प्रकोप शुरू हो जाता है। ऐसे में लीची उत्पादक किसानों को चाहिए कि समय रहते कीटों और रोगों की रोकथाम के उपाय करके फसल को बचाएं ताकि आर्थिक नुकसान से बचा जा सकें। आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से आपको गर्मियों में लीची की फसल को लगने वाले कीट और रोगों और उनसे बचाव के उपायों की जानकारी दे रहे हैं।
गर्मियों में अधिक तापमान के कारण लीची में झुलसा रोग का प्रकोप होने की संभावना अधिक रहती है। इससे लीची की फसल को काफी नुकसान होता है। इस रोग के कारण लीची की पत्तियां और कोपलें उच्च तापमान के कारण झुलसने लगती हैं। इससे पत्तियों के सिरों पर भूरे धब्बे होने लगते हैं।
यह रोग लीची में कवक की कई प्रजातियों से हो सकता है। इस रोग से पौधों की नई पत्तियां और कोपलें झुलस जाती हैं। लीची में झुलसा रोग की शुरुआत पत्ती के सिरे पर उत्तकों के मृत होने से भूरे धब्बे के रूप में होती है। जिसका फैलाव धीरे-धीरे पूरी पत्ती पर हो जाता है। रोग के बढऩे पर टहनियों के ऊपरी हिस्से झुलसे दिखाई देते हैं।
लीची की फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए किसान मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल (0.2 प्रतिशत) का छिडक़ाव करना चाहिए। रोग प्रकोप अधिक होने पर इसकी रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिडक़ाव करना चाहिए।
लीची में श्याम वर्ण रोग जिसे एन्थ्रेकनोज रोग भी कहा जाता है। लीची की फसल को लगने वाला श्याम वर्ण रोग जिसमें लीची छिलके काले पडऩे लग जाते हैं और ऐसे में ये संक्रमण तेजी से फैलता है। इससे लीची की फसल को भारी नुकसान होता है और बाजार में किसानों को लीची के कम भाव मिलते हैं।
यह रोग कोलेटोट्रीकम ग्लियोस्पोराइडिस नाम के कवक के संक्रमण से होता है। इस रोग के प्रकोप से फलों के छिलकों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो बाद में जाकर आकार में बड़े होने के साथ ही काले रंग में बदल जाते हैं। रोग बढऩे के साथ इसका फैलाव छिलकों के आधे हिस्से तक हो सकता है। अधिक तापमान और नमी होने से रोग का संक्रमण और फैलाव काफी तेजी से होने लगता है।
लीची को श्याम वर्ण रोग के संक्रमण से बचाने के लिए किसानों को मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से पानी के घोल; 0.2 प्रतिशत का छिडक़ाव करना चाहिए। रोग का प्रकोप अधिक होने पर इसकी रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिडक़ाव करना चाहिए।
लीची में फल विगलन रोग के कारण फल मुलायम होकर सडऩे लगते हैं। यदि समय रहते यदि बचाव नहीं किया जाए तो किसानों को भारी नुकसान होता है।
लीची में ये रोग कई प्रकार के कवकों के कारण होता है। जिनमें से एस्परजिलस स्पीसीज, कोलेटोटाइकम ग्लिओस्पोराइडिस, अल्टरनेरिया अल्टरनाटा आदि कवक इसके प्रमुख कारक है। इस रोग का प्रकोप उस समय होता है, जब फल परिपक्व अवस्था में होने लगता है। इस रोग के शुरुआती प्रकोप में लीची का छिलका मुलायम हो जाता है और फल सडऩे लगता हैं। फल के छिलके भूरे से काले रंग के हो जाते हैं। फलों के परिवहन और भंडारण के समय इस रोग के प्रकोप की अधिक संभावना होती है। इससे किसानों को इसके परिवहन और भंडारण करते समय सावधानी बरतनी चाहिए।
लीची मेें फल विगलन रोग बचाव के लिए इसकी फल तुड़ाई के 15 से 20 दिन पहले पौधों पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिडक़ाव करना चाहिए। फल तुड़ाई के दौरान फलों को यांत्रिक क्षति होने से बचाना चाहिए। फलों को तोडऩे के तुरत बाद पूर्वशीतलन उपचार (तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेट नमी 85 से 90 प्रतिशत) करें। फलों की पैकेजिंग 10 से 15 प्रतिशत कार्बन डायऑक्साइड गैस वाले वातावरण के साथ करनी चाहिए।
लीची में पर्ण चित्ती रोग का प्रकोप अक्सर जुलाई माह में होता है। इसमें पत्तों पर भूरे या गहरे चॉकलेटी रंग की चित्ती पत्तियों के ऊपर दिखाई देने लगती है। चित्तियों की शुरुआत पत्तियों के सिरों से होती है और यह धीरे-धीरे नीचे के तरफ बढ़ती हुई पत्ती के किनारे और बीच के हिस्से में फैलती जाती है। इससे इन चित्तियों के किनारे अनियमित दिखते हैं।
पर्ण चित्ती रोग से बचाव के लिए लीची में प्रभावित भाग की कटाई-छंटाई करनी चाहिए और जमीन पर गिरी हुई पत्तियों को जला देना चाहिए। इसके अलावा इस रोग की रोकथाम के लिए मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल (0.2 प्रतिशत) का छिडक़ाव करना चाहिए। रोग अधिक होने पर इसकी रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिडक़ाव करना चाहिए। वहीं नीम काढ़ा या गौमूत्र का छिडक़ाव सितंबर से अक्टूबर तक पूरे पौधे पर करना चाहिए।
गर्म हवाओं के प्रकोप से लीची में असमय फल झडऩे की समस्या भी दिखाई देती है। यह समस्या सिंचाई की कमी के कारण होती है। इसके लिए किसान को चाहिए कि फल बनने के बाद बाग में लगातार नमी बनाए रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में बराबर सिंचाई करते रहें। वहीं खेत में 50 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद समान रूप से बखेर दें। 50 किलो गोबर की खाद में 2 किलो ट्राईकोडरमा मिला कर जड़ के पास मिट्टी में मिला देनी चाहिए और साथ ही साथ 4 मिली प्लानोफिक्स दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडक़ाव करना चाहिए।
अधिक गर्म और सूखे इलाकों में लीची में फलों के फटने की समस्या अधिक दिखाई देती है। यह समस्या अधिक सिंचाई करने से उत्पन्न होती है। इसके लिए किसानों को चाहिए कि बाग में लगातार नमी बनाए रखने के लिए समय-समय पर आवश्यकता अनुसार सिंचाई करते रहें जिससे भूमि सूख नहीं पाए। वहीं खेत की मेड पर हवा अवरोधक पौधे लगाकर भी इस समस्या से कुछ हद तक बचा जा सकता है। वहीं लीची में मैग्नीशियम का छिडक़ाव करने से भी फलों को फटने की समस्या काफी हद तक कम होती है। फलों के फटने की समस्या सेे बचाव के लिए बोरेक्स (बोरोन 1 प्रतिशत 1 किग्रा/100 लीटर पानी) का जड़ के पास रिंग में प्रयोग व पर्ण पर छिडक़ाव करने से फलों का फटना रूक जाता है और 40 से 50 प्रतिशत उत्पादन बढ़ भी जाता है।
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