Published - 09 Oct 2021 by Tractor Junction
ड्राई फ्रूट की बढ़ती मांग से किसानों का रूझान अब इस ओर होने लगा है। कई किसान ड्राई फ्रूट जैसे- काजू, बादाम, अखरोट, किशमिश, पिस्ता की खेती करके लाखों की कमाई कर रहे हैं। त्योहारों में ड्राई फू्रड की मांग काफी अधिक रहती है। अधिकतर लोग त्योहार में बाजार की मिठाई की जगह अपने नाते-रिश्तेदारों को उपहार स्वरूप ड्राई ड्राई फ्रूट ही देना अधिक पसंद करते हैं। देश में काजू का आयात निर्यात का एक बड़ा व्यापार भी है। देश के कई राज्यों में इसकी खेती की जाती है। आज हम आपको टै्रक्टर जंक्शन के माध्यम से ड्राई फू्रड में सबसे अधिक खाए जाने वाले काजू की खेती की जानकारी आपको दे रहे हैं। उम्मीद है कि हमारे द्वारा दी गई जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी।
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काजू की व्यावसायिक खेती दिनों-दिन लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि काजू सभी अहम कार्यक्रमों या उत्सवों में अल्पाहार या नाश्ता का जरूरी हिस्सा बन गया है। देश में ही नहीं, विदेशी बाजारों में भी काजू की बहुत अच्छी मांग है। काजू का उपभोग कई तरह से किया जाता है। काजू का प्रयोग अनेक प्रकार की मिठाइयों में किया जाता है। इसके अलावा इसका उपयोग मदिरा बनाने में भी किया जाता है। काजू के छिलके का इस्तेमाल पेंट से लेकर स्नेहक (लुब्रिकेंट्स) तक में होता है।
काजू का पेड़ तेजी से बढऩे वाला उष्णकटिबंधीय पेड़ है जो काजू और काजू का बीज पैदा करता है। काजू की उत्पत्ति ब्राजील से हुई है। किंतु आजकल इसकी खेती दुनिया के अधिकांश देशों में की जाती है। सामान्य तौर पर काजू का पेड़ 13 से 14 मीटर तक बढ़ता है। हालांकि काजू की बौनी कल्टीवर प्रजाति जो 6 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है, जल्दी तैयार होने और ज्यादा उपज देने की वजह से बहुत फायदेमंद साबित हो रहा है। काजू के पौधारोपण के तीन साल बाद फूल आने लगते हैं और उसके दो महीने के भीतर पककर तैयार हो जाता है। बगीचे का बेहतर प्रबंधन और ज्यादा पैदावार देनेवाले प्रकार (कल्टीवर्स) का चयन व्यावसायिक उत्पादकों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है।
एशियाई देशों में अधिकांश तटीय इलाके काजू उत्पादन के बड़े क्षेत्र हैं। भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से केरल, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा एवं पं. बंगाल में की जाती है परंतु झारखंड राज्य के कुछ जिले जो बंगाल और उडीसा से सटे हुए हैं वहां पर भी इसकी खेती की अच्छी संभावनाएं हैं। अब तो मध्यप्रदेश में इसकी खेती होने लगी है।
काजू की प्रमुख किस्मों में वेगुरला-4, उल्लाल -2, उल्लाल -4, बी.पी.पी.-1, बी.पी.पी.-2, टी.-40 आदि अच्छी किस्में मानी जाती है।
काजू की खेती (Cashew Farming) के लिए जलवायु
काजू एक उष्ण कटिबन्धीय फसल है जो गर्म एवं उष्ण जलवायु में अच्छी पैदावार देता है। 700 मी. ऊंचाई वाले क्षेत्र जहां पर तापमान 20 सें.ग्रे. से ऊपर रहता है काजू की अच्छी उपज होती है। 600-4500 मि.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र के लिए अच्छे माने जाते हैं। इसके लिए पाला और नुकसान दायक होता है। इसलिए इसकी फसल को पाले से बचना जरूरी होता है। जिन क्षेत्रों में पाला या लंबे समय तक सर्दी पड़ती है वहां इसकी खेती प्रभावित होती है।
वैसे तो काजू की खेती कई प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है लेकिन समुद्र तटीय प्रभाव वाली लाल एवं लेटराइट मिट्टी वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त रहते हैं। इसके साथ ही मिट्टी का पीएच स्तर 8.0 तक होना चाहिए। काजू उगाने के लिए खनिजों से समृद्ध शुद्ध रेतीली मिट्टी को भी चुना जा सकता है।
काजू की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय खेत की ट्रैक्टर, कल्टीवेटर 2-3 बार जुताई कर दें करनी चाहिए। इसके बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेन चाहिए जिससे नये पौधों को प्रारम्भिक अवस्था में पनपने में कोई कठिनाई न हो। इस बात का ध्यान रखें की खेत में किसी प्रकार की खरपतवार नहीं होनी चाहिए।
खेत की तैयारी के बाद अप्रैल-मई के महीने में निश्चित दूरी पर 60x 60 x 60 सें.मी. आकार के गड्ढ़े तैयार कर लें। अगर जमीन में कठोर परत है तो गड्ढ़े के आकार को आवश्यकताअनुसार बढ़ाया जा सकता है। गड्ढों को 15-20 दिन तक खुला छोडऩे के बाद 5 कि.ग्रा. गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 2 कि.ग्रा. रॉक फॉस्फेट या डीएपी के मिश्रण को गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में मिलाकर भर देना चाहिए। गड्ढों के आसपास ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वहां पानी इक्ट्ठा नहीं हो। अधिक सघनता से बाग लगाने के दौरान पौधों की दूरी 5x5 या 4x4 मी. रखनी चाहिए।
काजू के पौधों को साफ्ट वुड ग्राफ्टिंग विधि से तैयार किया जा सकता है। भेंट कलम द्वारा भी पौधों को तैयार कर सकते हैं। पौधा तैयार करने का उपयुक्त समय मई-जुलाई का महीना होता है।
काजू के पौधों को वर्षा काल लगाना अच्छा रहता है। तैयार गड्ढों में पौधा रोपने के बाद थाला बना देते हैं तथा थालों में खरपतवार की समय-समय पर निकाई-गुड़ाई करते रहते हैं। जल संरक्षण के किए थालों में सूखी घास का पलवार भी बिछाते हैं।
हर साल पौधों को 10-15 कि.ग्रा. गोबर की खाद देनी चाहिए। इसके साथ ही रासायनिक उर्वरकों की भी उपयुक्त मात्रा देनी चाहिए। प्रथम वर्ष में 300 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम रॉक फास्फेट, 70 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा की दर से देनी चाहिए। वहीं दूसरे वर्ष इसकी मात्रा दुगुनी कर देनी चाहिए तथा तीसरे वर्ष के बाद पौधों को 1 कि.ग्रा. यूरिया, 600 ग्रा. रॉक फास्फेट एवं 200 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति वर्ष मई-जून और सितंबर-अक्टूबर के महीनों में आधा-आधा बांटकर देते रहे।
काजू के पौधों को प्रारंभिक अवस्था में अच्छा आकार देने की जरूरत होती है। इसके लिए इसकी समय-समय पर छटाई करते रहना चाहिए। पौधो को अच्छा आकार देने के बाद सूखी, रोग एवं कीट ग्रसित तथा कैंची शाखाओं को काटते रहना चाहिए।
काजू में ‘टी मास्कीटो बग’ की प्रमुख समस्या होती है। यदि इसका प्रकोप दिखाई दे तो इसके लिए नीचे दिए गए अनुसार छिडक़ाव करना चाहिए।
काजू में पूरे फल की तोड़ाई नहीं की जाती है केवल गिरे हुए नट को एकत्र किया जाता है और इसे धूप में, सुखाकर तथा जूट के बोरों में भरकर ऊंचे स्थान पर रख दिया जाता है। प्रत्येक पौधे से लगभग 8 किलोग्राम नट प्रतिवर्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार एक हेक्टेयर में लगभग 10-15 क्विंटल काजू ने नट प्राप्त होते है। जिनको प्रसंस्करण के बाद खाने योग्य काजू प्राप्त होता है।
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