Published - 26 Apr 2022
मूली की फसल कम समय में अधिक मुनाफा देने वाली फसल है। वैसे ये ठंडी जलवायु की फसल मानी जाती है लेकिन इसकी खेती मुख्य रूप से रबी के मौसम में की जाती है। मूली का उपयोग कच्चे सलाद के रूप में साथ ही सब्जी बनाने के अलावा अचार बनाने में भी किया जाता है। इसके सेवन से पेट की कब्ज और गैस आदि की समस्या नहीं होती है। पथरी की बीमारी में भी इसका सेवन अच्छा माना जाता है। भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब, असम, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में की जाती है। इसके अलावा कई राज्यों में भी इसकी खेती की जाती है। यदि इसकी खेती सही तरीके से की जाए तो इससे बेहतर पैदावार के साथ भारी मुनाफा कमाया जा सकता है। बता दें कि बड़े-बड़े होटलों और ढाबों पर सलाद के रूप इस्तेमाल होने के कारण बाजार में मूली की मांग बनी रहती है।
मूली की खेती के लिए ठंडी जलवायु अच्छी रहती है। इसके लिए 10 से 15 सेल्सियस तापमान आवश्यक होता है। लेकिन आजकल इसकी खेती पूरे साल की जाने लगी है। वैसे अधिक तापक्रम इसकी फसल के लिए अच्छा नहीं होता है। इससे जड़े कड़ी और कड़वी हो जाती है। अब बात करें इसकी खेती के लिए मिट्टी या भूमि की तो इसकी खेती के लिए जीवांशयुक्त दोमट या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। मूली की बुवाई के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 6.5 के आसपास होना चाहिए।
मूली की खेती मैदानी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में की जाती है। मैदानी भागों में इसकी बुवाई का समय सितंबर से जनवरी तक माना जाता है। वहीं पहाड़ी इलाकों में इसकी बुवाई अगस्त माह तक की जाती है।
मूली की कुछ किस्मों की बुवाई अलग-अलग समय पर की जाती है। जिसमें पूसा हिमानी की बुवाई दिसंबर से फरवरी तक की जाती है तथा पूसा चेतकी की बुवाई मार्च से मध्य अगस्त माह तक कर सकते हैं।
मूली की बुवाई से पहले खेत को भलीभांति तैयार कर लेना चाहिए। इसमें खेत की पांच से छह बार जुताई कर लेनी चाहिए। बता दें कि मूली की फसल के लिए गहरी जुताई कि आवश्यकता होती है क्योंकि इसकी जड़ें भूमि में गहरी जाती है गहरी जुताई के लिए ट्रैक्टर या मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई की जानी चाहिए। इसके बाद दो बार कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए और इसके बाद खेत को समतल करने के लिए पाटा लगाना चाहिए।
मूली की अच्छी पैदावार लेने के लिए 200 से 250 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी करते समय देनी चाहिए। इसी के साथ ही 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा दो बार में खड़ी फसल में दी जानी चाहिए। जिसमें नाइट्रोजन 1/4 मात्रा शुरू की पौधों की बढ़वार पर तथा 1/4 नाइट्रोजन की मात्रा जड़ों की बढ़वार के समय देना चाहिए।
मूली की बुवाई के लिए उन्नत किस्मों का उपयोग किया जाना चाहिए। उन्नत किस्मों के बीजों से बेहतर और स्वस्थ्य उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। मूली की कुछ उन्नत किस्में काफी प्रचलित है जिनमें जापानी सफेद, पूसा देशी, पूसा चेतकी, अर्का निशांत, जौनपुरी, बॉम्बे रेड, पूसा रेशमी, पंजाब अगेती, पंजाब सफेद, आई.एच. आर1-1 एवं कल्याणपुर सफेद अच्छी मानी जाती है। वहीं शीतोषण प्रदेशों के लिए रैपिड रेड, ह्वाइट टिप्स, स्कारलेट ग्लोब तथा पूसा हिमानी किस्में अच्छी बताई जाती है।
मूली के बीजों की बुवाई मेड़ों तथा समतल क्यारियों में भी की जाती है। बुवाई के समय पंक्ति से पंक्ति या मेड़ों से मेंड़ो की दूरी 45 से 50 सेंटीमीटर तथा ऊंचाई 20 से 25 सेंटीमीटर होनी चाहिए। वहीं पौधे से पौधे की दूरी 5 से 8 सेंटीमीटर रखी जाती है। मूली के बीजों की बुवाई 3 से 4 सेंटीमीटर की गहराई पर करनी चाहिए।
बुवाई से पहले मूली के बीतों को उपचारित करना बेहद जरूरी है ताकि रोगों से इसे बचाया जा सकें। बुवाई के लिए इसके 10 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त है। मूली के बीज का शोधन 2.5 ग्राम थीरम से एक किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। या फिर 5 लीटर गौमूत्र प्रतिकिलो बीज के हिसाब से बीजोपचार के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
मूली फसल में पहली सिंचाई तीन चार पत्ती आने की अवस्था पर कर देनी चाहिए। मूली की सिंचाई व्यवस्था भूमि के हिसाब से करनी चाहिए। ये कम ज्यादा हो सकती है। समान्यत: सर्दियों में 10 से 15 दिन पर इसकी सिंचाई की जा सकती है। वहीं गर्मियों में इसमें प्रति सप्ताह सिंचाई की आवश्यकता होती है।
मूली की खेती में खरपतवार की समस्या भी रहती है। इसे नियंत्रित करने के लिए फसल की 2 से 3 बार निराई-गुड़ाई की जानी चाहिए। वहीं जब इसकी जड़ों की बढ़वार शुरू हो जाए तो एक बार मेंड़ों पर मिट्टी अवश्य चढ़ानी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के तुरंत बाद 2 से 3 दिन के अंदर 3.3 लीटर पेंडामेथलीन 600 से 800 लीटर पानी के साथ घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिडक़ाव करना चाहिए।
मूली की फसल को कई रोगों से खतरा रहता है। इसमें व्हाईट रस्ट, सरकोस्पोरा कैरोटी, पीला रोग, अल्टरनेरिया पर्ण, अंगमारी रोग प्रमुख रूप से हैं। इन रोगों पर नियंत्रण के लिए फफूंद नाशक दवा डाईथेन एम 45 या जेड 78 का 0.2 प्रतिशत घोल से छिडक़ाव करना चाहिए या फिर 0.2 प्रतिशत ब्लाईटेक्स का छिडक़ाव किया जाना चाहिए।
मूली की फसल को कई प्रकार के कीट लग सकते हैं। इससे उत्पादन में कमी आ सकती है। इसलिए इन कीटों पर नियंत्रण किया जाना बेहद जरूरी हो जाता है। मूली में मुख्य रूप से मांहू, मूंगी, बालदार कीड़ा, अर्धगोलाकार सूंडी, आरा मक्खी, डायमंड बैक्टाम कीट का प्रकोप अधिक रहता है। इनकी रोकथाम के लिए मैलाथियान 0.05 प्रतिशत तथा 0.05 प्रतिशत डाईक्लोरवास का प्रयोग किया जाना चाहिए। बता दें कि रोग नियंत्रण और कीट नियंत्रण के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सभी दवाओं का प्रयोग किसी अनुभवी व्यक्ति की देखरेख में किया जाना चाहिए।
साधारणत: मूली की फसल 40 से 50 दिन में तैयार हो जाती है। जब मूली छोटी अवस्था में हो तब इसकी कटाई नहीं करनी चाहिए। जब तक ये आकार सही आकार में नहीं आ जाएं तब तक इसे नहीं काटना चाहिए। वहीं इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जब आपको लगे की मूली की जड़ पूरी तरह खाने लायक हो गई है तभी उसकी कटाई शुरू कर दें।
मूली की सही तरीके से की गई खेती ही उसके उत्पादन या पैदावार की मात्रा का निर्धारण करती है। हालांकि यूरोपियन प्रजातियों से 80-100 क्विंटल और एशियाई प्रजातियों से 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
किसान क्षेत्रीय मंडी में मूली का विक्रय कर सकते हैं। वहीं शहर के नजदीकी रिटेल स्टोर में मूली बेच सकते है। आजकल शहरों में सब्जियों और फलों के रिटेल स्टोर खोले जा रहे हैं, जिनके द्वारा शहरों में सब्जी की पूर्ती की जाती है। ऐसे रिटेल स्टोर में मूली को बेचकर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। सामान्य तौर पर मूली का भाव 500 से 1200 रुपए प्रति क्विंटल तक मिल जाता है। यदि सामान्य रूप से खेत से 150 से 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर भी उत्पादन होता है तब भी किसान मूली की खेती से कम से कम एक लाख रुपए की प्रति हेक्टेयर तक की कमाई आसानी से कर सकते हैं।
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