Published - 28 Oct 2020 by Tractor Junction
मसाला फसलों में सौंफ का अपना विशिष्ट स्थान है। ये अपनी खुशबू के कारण लोकप्रिय होने के साथ ही औषधी के रूप में भी पहचानी जाती है। इसका सब्जियों में प्रयोग होने के साथ ही आचार बनाने में भी किया जाता है। यदि इसके औषधीय महत्व की बात करें तो इसे कई रोगों में दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। आयुर्वेद में सौंफ को त्रिदोष नाशक बनाया गया है। यानि ये वात, पित्त, कफ इन त्रिदोषों को खतम करने में सक्षम है। इसका किसी भी रूप में सेवन शरीर को लाभ ही पहुंचाता है। पर याद रखें इसका आवश्यकता से अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। इसकी खेती भारत में मुख्यत: राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, गुजरात, हरियाणा व कर्नाटक राज्य में की जाती है। यदि व्यवसायिक स्तर पर इसकी खेती की जाए तो काफी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। आइए जानते हैं सौंफ की कौन-कौनसी किस्म की खेती करना अधिक लाभप्रद रहेगा और साथ ही किसान भाई इसकी खेती में क्या-क्या सावधानियां बरते कि उन्हें अधिक बेहतर उत्पादन होने के साथ ही अधिक मुनाफा मिल सके।
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सौंफ की यह किस्म मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा विकसित की गई है। यह किस्म शुष्क परिस्थिति के लिए उपयुक्त है। यह किस्म किस्म 200 से 230 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी 16.95 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.60 प्रतिशत होती है।
सौंफ की इस किस्म को मसाला अनुसंधान केन्द्र जगुदन, गुजरात द्वारा विकसित किया गया हैं। यह किस्म सिंचित तथा असिंचित दोनों परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है। इसकी औसत उपज 19.4 किंवटल प्रति हैक्टर हैं। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 2.4 प्रतिशत होती हैं।
सौंफ की यह किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा किया गया है। यह किस्म सिंचित खेती के लिए उपयुक्त है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 प्रतिशत है। इसकी औसत पैदावार 24.8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है।
इस सौंफ की किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के अधीन श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर (जयपुर) द्वारा किया गया है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसकी उपज क्षमता 17.30 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है।
इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा किया गया है। सौंफ की यह किस्म 216 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी 16.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है। यह किस्म झुलसा एवं गुंदिया रोग के प्रति मध्यम सहनशील है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.90 प्रतिशत होती है।
इस सौंफ की किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के अधीन श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर (जयपुर) द्वारा किया गया है। यह किस्म 150 से 160 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म की औसत उपज क्षमता 15.50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है।
यह सौंफ की किस्म हरियाण कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है। इसके दाने लंबे एवं मोटे होते हैं। इसकी औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हैक्टर हैं। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.6 प्रतिशत पायी जाती हैं।
इस किस्म का विकास राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर द्वारा किया गया है। यह किस्म 180 से 190 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म सीधी बुवाई द्वारा 19 तथा पौध रोपण द्वारा 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज देती है।
यह किस्म दोमट एवं काली कपास वाली भूमियों के लिये उपयुक्त है। यह 150 से 160 दिन में पक जाती है। इसकी औसत उपज क्षमता 15 से 18 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा भी अधिक (1.2 प्रतिशत) होती है। इस किस्म में रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता अधिक तथा तेला कीट कम लगता है।
सौंफ की यह किस्म 140 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें वाष्पशील तेल अधिक (1.87 प्रतिशत) होता है।
सौंफ की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में 3 से 4 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करके खेत को समतल बनाकर पाटा लगाते हुए एक सा बना ले। खेती की आखिरी के जुताई समय 150 से 200 कुंतल सड़ी गोबर की खाद मिला देनी चाहिए और पाटा फेर दे ताकि खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिल जाए।
सौंफ के बीजों की बुवाई लाइनों में करना चाहिए। इसकी दो तरीके से बुवाई की जाती है। पहली छिटककर तथा दूसरी लाइनों में रोपाई कर के की जाती है। लाइनों में रोपाई करने के तरीके में लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसमें ध्यान देने वाली बात ये हैं कि जब इसकी पौध की रोपाई की जाती है तो 7 से 8 सप्ताह पहले रोपाई से पौध डालकर की जानी चाहिए।
रबी में सौंफ की खेती करने वाले किसानों को सलाह दी जाती है की सौंफ की फसल के लिए खाद प्रबंधन में 90 किलो ग्राम नत्रजन, 40 किलो ग्राम फास्फोरस और 30 किलो ग्राम पोटास प्रति हेक्टेयर देना चहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फोस्फोरस एवं पोटास की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय ही खेत में मिला देना चाहिए। इसके बाद शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के बाद 30 एवं 60 दिनों बाद ट्रैपड्रेसिंग के रूप में सिंचाई के साथ देना चाहिए। मसाला संसोधन केंद्र जगुदन के अनुसार नाइट्रोजन 90 किलो, फास्फोरस 30 किलो प्रति हेक्टेयर दिया जाना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस और पोटास की पूरी मात्रा बुवाई के समय एवं शेष नाइट्रोजन 30 एवं 60 दिवस के के अंतराल में देना चाहिए।
सौंफ की फसल की सिंचाई के लिए टपक पद्धति अपनाई जा सकती है। इस पद्धति से पानी कम लगता है। इससे विधि से सिंचाई करने पर आवश्यक मात्रा में पानी पौधों तक पहुंच जाता है। इसकी पहली सिंचाई पौध रोपाई के बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। इसके अलावा बीज बनते तथा पकते समय सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। अब बात करें इसकी निराई गुड़ाई की तो इसकी निराई गुड़ाई कार्य पहली सिंचाई के बाद शुरू कर देना चाहिए तथा 45 से 50 दिन बाद निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए, क्योंकि फसल बड़ी होने पर होने पर निराई-गुड़ाई करते समय पौधे टूटने का डर बना रहता है।
सौंफ के अम्बेल जब पूरी तरह विकसित होकर और बीज पूरी तरह जब पककर सूख जावे तभी गुच्छों की कटाई करनी चाहिए। कटाई के बाद एक-दो दिन धूप में सुखा देना चाहिए तथा हरा रंग रखने के लिए 8 से 10 दिन छाया में सुखाना चाहिए जिससे इसमें अनावश्यक नमी जमा न हो। हरी सौंफ प्राप्त करने हेतु फसल में जब अम्बेल के फूल आने के 30 से 40 दिन में गुच्छों की कटाई करनी चाहिए। कटाई के बाद गुच्छों को छाया में ही अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए।
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