प्रकाशित - 20 Jan 2023
देश में कोरोना (Corona) महामारी के बाद से ही किसानों के बीच औषधीय फसलों की खेती का चलन काफी तेजी से बढ़ा है। बाजारों में औषधीय फसलों की बड़े स्तर पर मांग है। स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए लोग आयुर्वेदिक उत्पादों का सेवन बड़े स्तर पर करने लगे हैं। इसी वजह से देश के साथ दुनिया भर में आयुर्वेदिक उत्पादों की मांग में वृद्धि होने लगी है। ऐसे में किसान बाजार की मांग के अनुसार औषधीय फसलों की खेती पारंपरिक तरीके से करके अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।
बता दें कि भारत में आयुर्वेद प्राचीन काल से ही चला आ रहा है, जो कि पूरी दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा प्रणाली भी है। अपने देश में पौराणिक काल से ही औषधीय फसलों की खेती होती आ रही है। भारत के हर राज्य में विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधों की खेती की जाती है। देश की कई प्रसिद्ध कंपनियाें के आयुर्वेद उत्पाद विश्वभर में प्रसिद्ध है और सालभर बाजार में उनके उत्पादों की मांग बनी रहती है। किसान भाई अपने क्षेत्र की जलवायु, मौसम और खेत के आधार पर इन फसलों की खेती कर सकते हैं। कई राज्यों में सरकार की तरफ से इन फसलों की खेती करने के लिए अनुदान भी दिया जाता है।
किसान भाईयों आज ट्रैक्टर जंक्शन की इस पोस्ट में हम आपके साथ 5 सबसे अच्छा मुनाफा देने वाले औषधीय पौधों की खेती से जुड़ी सभी जानकारी दे रहे हैं।
भारत के अधिकांश किसान औषधीय फसलों में सर्पगन्धा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, वच, कालमेघ, कौंच, तुलसी, एलोवेरा, आर्टीमीशिया, लेमनग्रास, अकरकरा, सतावरी और सहजन की खेती प्रमुख रूप से करते हैं। पारंपरिक फसलों की खेती की तुलना में औषधीय पौधों की खेती से एक एकड़ में किसानों को अधिक आमदनी होती है।
भारत में औषधीय फसलों की खेती करने वाले प्रमुख राज्यों में राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश है। इन राज्यों में प्रमुख रूप से किसान औषधीय फसलों की खेती करते हैं व अधिक उत्पादन व लाभ कमाते हैं।
देश व दुनिया में आयुर्वेदिक उत्पादों की बढ़ती मांग को देखते हुए, किसान भाई परंपरागत खेती के साथ-साथ औषधीय व जड़ी-बूटी की खेती करने की ओर अधिक रुचि ले रहे हैं व इस बात के भी अनुमान लगाए जा रहे हैं कि आने वाले समय में आयुर्वेदिक उत्पादों की बिक्री भी काफी बढ़ जाएगी। सरकार भी किसानों को पारंपरिक फसलों के साथ-साथ अन्य औषधीय फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। केंद्र व राज्य की सरकारें किसानों को ऐसी औषधीय फसलों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है, जिनका इस्तेमाल आयुर्वेद में दवाइयों को बनाने के लिए किया जाता है, यहां हम आपको ऐसी ही 5 औषधीय फसलों की खेती के बारे में बता रहे हैं, जो अधिक मुनाफा दे सकती हैं।
अकरकरा एक औषधीय फसल है, जिसके पौधे की जड़ों का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाइयों को बनाने के लिए किया जाता है। भारत में पिछले 400 वर्षों से अकरकरा का उपयोग आयुर्वेद में सफलतापूर्वक किया जा रहा है। इस पौधे में कई प्रकार के औषधीय गुण होते हैं। इस पौधे के बीज और डंठल की बाजार में काफी मांग रहती है, इसका इस्तेमाल दर्द निवारक दवाइयों और मंजन से लेकर तेल को बनाने के लिए होता है। अकरकरा की खेती में मेहनत कम लगती है, लेकिन इसकी खेती से मुनाफा अधिक होता है। इसकी फसल को तैयार होने में 6 से 8 महीने तक का समय लगता है, तथा पौधों को विकास करने के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। भारत में अकरकरा की खेती मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में अधिक की जाती है। अकरकरा के पौधों पर तेज गर्मी या अधिक सर्दी का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है। इसकी खेती करने के लिए भूमि भी सामान्य पी.एच. मान वाली होनी चाहिए।
अश्वगंधा एक झाड़ीनुमा आकार का पौधा होता है, जिसकी जड़ों से अश्व जैसी गंध निकलती है। इसीलिए इसको अश्वगंधा कहते हैं। अश्वगंधा सभी तरह की जड़ी-बूटियों में सबसे अधिक लोकप्रिय है। इसका सेवन करने से तनाव और चिंता जैसी समस्या को कम किया जा सकता है। अश्वगंधा की जड़, बीज, फल और पत्ती का उपयोग औषधीय रूप से करते हैं। अश्वगंधा की खेती किसानों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद है। किसान भाई इसकी खेती करके कई गुना लाभ कमाते हैं। अश्वगंधा एक प्रकार का स्फूर्तिदायक, बलवर्धक, तनाव रोधी, स्मरणशक्ति वर्धक और कैंसर रोधी युक्त पौधा है। यह औषधीय फसल कम लागत में अधिक उत्पादन दे देती है। किसान अश्वगंधा की खेती करके लागत से तीन गुना ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। अश्वगंधा की खेती करने के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है, तथा वर्तमान समय में पारंपरिक खेती के नुकसान को देखने हुए इसकी खेती किसानों के लिए उपयोगी साबित हो रही है।
सहजन के पौधे में 90 से भी अधिक प्रकार के मल्टी विटामिन्स, 17 प्रकार एमिनो एसिड और 45 किस्म के एंटीऑक्सीडेंट गुण पाये जाते हैं। इसलिए सालभर सहजन की मांग रहती है। सहजन की फसल एक बार बुवाई के बाद 4 वर्ष तक फसल उत्पादन देती रहती है तथा इसकी खेती में लागत भी काफी कम आती है। एक एकड़ के खेत में सहजन की बुवाई करने के बाद किसान भाई 10 माह में ही 1 लाख रुपए तक की कमाई आसानी से कर सकते हैं। सहजन को ड्रमस्टिक के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्रयोग सब्जी के साथ दवा को बनाने के लिए भी किया जाता है। देश के ज्यादातर हिस्सों में सहजन की खेती की जाती है। आयुर्वेद में सहजन की छाल, जड़ और पत्तों का इस्तेमाल दवाई बनाने के लिए किया जाता है। भारत के तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सहजन की खेती प्रमुखता से की जाती है।
लेमनग्रास को आम बोल चाल की भाषा में नींबू घास भी कहते हैं। भारत के लेमन ग्रास के तेल में सिंट्राल और विटामिन ए की मात्रा अधिक पाई जाती है। बाजार में लेमनग्रास से निकले तेल की काफी अधिक डिमांड रहती है| लेमन ग्रास तेल का इस्तेमाल साबुन, कॉस्मेटिक्स, तेल और दवा बनाने वाली कंपनिया काफी मात्रा में करती है। इसी वजह से किसान भाई लेमनग्रास की खेती की ओर रुख कर रहे हैं। लेमनग्रास की फसल पर प्राकृतिक आपदा का कोई असर नहीं देखने को मिलता है, और न ही जानवर इस फसल को खाते हैं। इसलिए इसकी फसल में काफी कम रिस्क होता है |
इसकी खेती करते समय पौधे की रोपाई के बाद बस एक बार निराई – गुड़ाई और वर्ष में 4 से 5 सिंचाई की जरूरत होती है। लेमन ग्रास का पौधा बुवाई के 6 महीने बाद कटाई के लिए तैयार हो जाता है, जिसके बाद हर 70 से 80 दिनों में इसकी दुबारा कटाई की जा सकती है। इसके पौधे की एक वर्ष में 5 से 6 कटाई कर सकते हैं।
सतावर का पौधा शतावरी के नाम से भी जाना जाता है। सतावर भी एक औषधीय फसल है, इसका प्रयोग विभिन्न प्रकार की दवाइयों को बनाने में करते हैं। बीते कुछ वर्षों में सतावर की मांग में तेजी आई है, साथ ही इसकी कीमत में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है। किसान भाइयों के लिए सतावर की खेती कमाई का एक अच्छा माध्यम भी है| सतावर की बुवाई करने के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है| एक एकड़ के खेत में सतावर की खेती कर 5 से 6 लाख रुपए की कमाई किसान आसानी से कर सकते हैं।
सतावर का पौधा तैयार होने में 1 वर्ष से भी अधिक का समय लेता है, तथा फसल के तैयार होने पर कई गुना ज्यादा फायदा मिलता है। सतावर की फसल में कीट पतंगे नहीं लगते हैं। इसका पौधा कांटेदार होता है, इस वजह से जानवर भी इस पौधे को नहीं खाते हैं। इसकी खेती मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और राजस्थान में बड़े स्तर पर की जाती है।
सर्पगन्धा की खेती करने के लिए एक एकड़ के खेत में तकरीबन 100 किलो ताज़ी जड़ों की जरूरत होती है। वहीं अश्वगंधा की खेती में प्रति एकड़ 8 से10 किलो बीज, ब्राम्ही की खेती में प्रति एकड़ 100 किलो बीज, कालमेघ की खेती में प्रति एकड़ 450 ग्राम बीज, कौंच की खेती में प्रति एकड़ 9 से 10 किलो बीज, सतावरी की खेती में प्रति एकड़ 3 किलो बीज, तुलसी की खेती में प्रति एकड़ 1 किलो बीज, एलोवेरा की खेती में प्रति एकड़ 5 हज़ार पौधे, वच की खेती में प्रति एकड़ 74,074 तने और आर्टीमीशिया की खेती में प्रति एकड़ 50 ग्राम बीजों की जरूरत होती है।
औषधीय फसल की खेती करते समय फसल की न तो अधिक देख-रेख और न ही अधिक पानी देने की जरूरत होती है। इस तरह से किसान भाई औषधीय फसलों की खेती करके अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। हर्बल उत्पादों में सफेद मूसली से बनी दवा हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, तथा लेमनग्रास के तेल को खुशबू वाले साबुन और श्यामा हर्बल का इस्तेमाल चाय और डियोड्रेंट व चमड़े से बदबू को दूर करने के लिए किया जाता है।
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