Published - 09 Mar 2022 by Tractor Junction
किसान सब्जियों की खेती करके अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं। इसके लिए सरकार की ओर से भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। ऐसे में यदि हाइब्रिड खेती की जाए तो सब्जियों की फसल से काफी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। आज हम बात करेंगे करेले की हाइब्रिड खेती की। करेले की हाईब्रिड खेती की कुछ ऐसी विशेषताएं है जिससे किसानों को इसकी खेती से काफी अच्छा लाभ हो सकता है। बता दें कि हाईब्रिड प्रजाति की बढ़वार जल्दी होती है और इसका उत्पादन भी बेहतर मिलता है। आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से हाईब्रिड करेले की खेती की जानकारी दे रहे हैं ताकि किसान भाई इससे लाभ उठा सकें।
करेले में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फायबर होता हैं। यह खनिज से भरपूर होता है। इसमें पोटेशियम, जिंक, मैग्नेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, आयरन, कॉपर, मैगनीज पाए जाते हैं। इसके अलावा विटामिन सी, विटामिन ए प्रचुरता में पाया जाता है। करेला के रस और सब्जी बनाकर सेवन अनेक बीमारियों जैसे- पाचनतंत्र की खराबी, भूख की कमी, पेट दर्द, बुखार, और आंखों के रोग में लाभ होता है। योनि या गर्भाशय रोग, कुष्ठ रोगों, तथा अन्य बीमारियों में भी आप करेला का सेवन फायदेमंद बताया जाता है। करेले से कमजोरी दूर होती है। इसके अलावा पेट में जलन, कफ, सांसों से संबंधित विकार में लाभ मिलता है। चिड़चिड़ाहट, सुजाक, बवासीर आदि में भी करेले से फायदा मिलता है। इतना ही नहीं करेला के बीज को घाव, आहार नलिका, तिल्ली विकार और लिवर से संबंधित बीमारियों में उपयोग में लिया जाता है।
ज्यादा मात्रा में करेला खाने से डायरयिा हो सकता है। क्योंकि करेला का स्वाद कड़वा होता है इसलिए इसे हर कोई नहीं खा सकता है। करेले का ज्यादा सेवन करने से डायरयिा और उल्टी की समस्या बढ़ सकती है।
करेले की दो किस्में होती हैं एक देशी और दूसरी हाईब्रिड यानि संकर किस्म। करेले की हाईब्रिड यानि संकर किस्म जल्दी से बढ़ती है और देशी किस्म के मुकाबले जल्दी तैयार हो जाती है। इसमें फलों का आकार सामान्य किस्म के करेले के मुकाबले बड़ा होता है। इसके बाजार में भाव भी अच्छे मिल जाते हैं। इसलिए ज्यादातर किसान हाइब्रिड करेले के बीजों का प्रयोग करते हैं। हालांकि हाईब्रिड करेले का बीज देशी बीज के मुकबाले थोड़ा महंगा होता है।
• हाइब्रिड करेले के पौधे पर बड़े आकार के फल आते हैं और उनकी संख्या भी ज्यादा होती है।
• हाइब्रिड करेला आकार में बड़ा होने के साथ-साथ हरे रंग का होता है।
• हाइब्रिड बीज से उगाए गए करेले के पौधे बहुत जल्दी फल देने लगते हैं।
• हाइब्रिड करेले की खेती साल भर की जा सकती है।
• हाइब्रिड करेले के बाजार में बेहतर भाव मिल जाते हैं।
• हाइब्रिड करेले में लागत से दुगुना लाभ लिया जा सकता है।
वैसे तो करेले की बहुतसी किस्में हैं लेकिन हम यहां सिर्फ चुनिंदा किस्मों की जानकारी दे रहे हैं जिनसे अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
पूसा हाइब्रिड 1 - इस किस्म को वर्ष 1990 में इसे विकसित किया गया था। ये उत्तरी मैदानी क्षेत्रों में खेती करने के लिए यह उपयुक्त है। इसके फल हरे एवं चमकदार होते हैं। इसकी खेती वसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु एवं वर्षा ऋतु में की जा सकती है। पहली तुड़ाई 55 से 60 दिनों में की जा सकती है। बता करें इसकी उपज की तो इस किस्म से प्रति एकड़ जमीन से 80 क्विंटल करेले की पैदावार प्राप्त की जा सकता है।
पूसा हाइब्रिड 2 - इस किस्म को वर्ष 2002 में विकसित किया गया। यह किस्म बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा एवं दिल्ली क्षेत्र में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है। इस किस्म के फलों का रंग गहरा हरा होता है। फलों की लंबाई एवं मोटाई मध्यम होती है। करीब 52 दिनों बाद पहली तुड़ाई की जा सकती है। प्रत्येक करेला करीब 85 से 90 ग्राम का होता है। प्रति एकड़ खेत से 72 क्विंटल पैदावार होती है।
पूसा विशेष - उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में फरवरी से जून तक इसकी खेती की जा सकती है। इसके फल मोटे एवं गहरे चमकीले हरे रंग के होते हैं। इसका गूदा मोटा होता है। इस किस्म के पौधों की लंबाई करीब 1.20 मीटर होती है और इसका प्रत्येक फल करीब 155 ग्राम का होता हैं। अब बात करें इसके उत्पादन की तो इस किस्म से प्रति एकड़ में 60 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
अर्का हरित - इस किस्म के फल मध्यम आकार के होते हैं। अन्य किस्मों की तुलना में यह कम कड़वे होते हैं। इस किस्म के फलों में बीज भी कम होते हैं। इसकी खेती गर्मी और बारिश के मौसम में की जा सकती है। प्रत्येक बेल से 30 से 40 फल प्राप्त किए जा सकते हैं। इस किस्म के फलों का वजन करीब 80 ग्राम होता है। प्रति एकड़ खेत से करीब 36 से 48 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
पंजाब करेला 1 - इस किस्म के करेले आकार में लंबे, पतले एवं हरे रंग के होते हैं। बुवाई के करीब 66 दिनों बाद इसकी पहली तुड़ाई की जा सकती है। इसका प्रत्येक फल लगभग 50 ग्राम का होता हैं। इस किस्म से प्रति एकड़ करीब 50 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
करेले की खेती केे लिए गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। इसे गर्मी और बारिश दोनों मौसम में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। फसल में अच्छी बढ़वार, फूल व फलन के लिए 25 से 35 डिग्री सेंटीग्रेट का तापमान अच्छा होता है। बीजों के जमाव के लिए 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेट का ताप अच्छा होता है। वहीं बात करें इसके लिए उपयुक्त मिट्टी की तो करेले की हाईब्रिड (संकर) बीज की बुवाई के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट या दोमट मिट्टी अच्छी रहती है।
करेला की खेती साल में दो बार की जा सकती है। सर्दियों वाले करेला की किस्मों की बुआई जनवरी-फरवरी की जा सकती है जिसकी मई-जून में उपज मिलती है। वहीं गर्मियों वाली किस्मों की बुआई बरसात के दौरान जून-जुलाई की जाती हैं जिसकी उपज दिसंबर तक प्राप्त होती हैं।
सबसे पहले खेत की ट्रैक्टर और कल्टीवेटर से अच्छी तरह से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। इसके बाद पाटा लगाकर खेत का समतल बना लें। इसके अलावा खेत में जल निकास की व्यवस्था सही हो और जल का भराव न हो ऐसी व्यवस्था करें। इसके बाद बुवाई से पहले खेत में नालियां बना लें जाकि पानी का जमाव खेत में न हो पाए। नालियां समतल खेत में दोनों तरफ मिट्टी चढ़ाकर बनानी चाहिए।
करेले के बीज की बुवाई करने से 25-30 दिन पहले 25-30 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद को एक हैकटेयर खेत में मिलाना चाहिए। इसके अलावा बुवाई से पहले नालियों में 50 किलो डीएपी, 50 किलो म्यूरेट आफ पोटास का मिश्रण प्रति हैक्टेयर के हिसाब से (500 ग्राम प्रति थमला) मिलाएं। 30 किलो यूरिया बुवाई के 20-25 दिन बाद व 30 किलो यूरिया 50-55 दिन बाद पुष्पन व फलन के समय डालना चाहिए। यूरिया शाम के समय डालना चाहिए जब खेत मे अच्छी नमी हो।
एक एकड़ में बुवाई के लिए करेले का 500 ग्राम बीज पर्याप्त होता है। बुवाई से पहले बीजों को बाविस्टीन (2 ग्रा प्रति किलो बीज दर से) के घोल में 18-24 घंटे तक भिगाना चाहिए। वहीं बुवाई के पहले बीजों को निकालकर छाया में सुखा लेना चाहिए।
करेले के बीजों को 2 से 3 इंच की गहराई पर बोना चाहिए। वहीं नाली से नाली की दूरी 2 मीटर, पौधे से पौधे की दूरी 50 सेंटीमीटर तथा नाली की मेढों की ऊंचाई 50 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। खेत में 1/5 भाग में नर पैतृक तथा 4/5 भाग में मादा पैतृक की बुआई अलग अलग खंडो में करनी चाहिए। फसल के लिए मजबूत मचान बनाएं और पौधों को उस पर चढ़ाएं जिससे फल खराब नहीं होते हैं।
पॉलीथीन की थैलियों में भी करेले की पौध तैयार की जा सकती है। इसके लिए 15 बाय 10 से.मी. आकार की पॉलीथीन की थैलियों में 1:1:1 मिट्टी, बालू व गोबर की खाद भरकर जल निकास की व्यवस्था के लिए सुजे की सहायता से छेद कर सकते हैं। बाद में इन थैलियों में लगभग 1 से.मी. की गहराई पर बीज बुवाई करके बालू की पतली परत बिछा लें तथा हजारे की सहायता से पानी लगाएं। लगभग 4 सप्ताह में पौधे खेत में लगाने के योग्य हो जाते हैं। जब पाला पडऩे का डर समाप्त हो जाए तो पॉलीथीन की थैली को ब्लेड से काटकर हटाने के बाद पौधे की मिट्टी के साथ खेत में बनी नालियों की मेढ़ पर रोपाई करके पानी दें।
बारिश में करेले की बुवाई करने पर इसमें कम सिंचाई से भी काम चल जाता है लेकिन गर्मी में इसकी समय-समय पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि खेत में पानी का जमाव नहीं हो। इसके लिए खेत में नालियां इस तरह बनानी चाहिए कि भूमि में नमी बनी रहे लेकिन खेत में जल का ठहराव नही हो पाए।
करेले की फसल को कई प्रकार के रोग, कीट लगने का डर बना रहता है। इसमें मुख्यत: गाजर, लाल भृंग और महू रोग का प्रकोप अधिक रहता है। इसके लिए कृषि विशेषज्ञ की सलाह लेकर कीटनाशक या रासायनिक खाद का प्रयोग करना चाहिए।
फल पकने पर फल चमकीले नारंगी रंग के हो जाते हैं। फल को तभी तोडऩा चाहिए जब फल का कम से कम दो तिहाई भाग नारंगी रंग का हो जाए क्योंकि कम पके फल में बीज अल्प विकसित रहते हैं। अधिक पकने पर फल फट जाते हैं और बीज का नुकसान होता है।
करेले की एक एकड़ में लागत 20-25 हजार रुपए तक आती है। जबकि इससे प्रति एकड़ 50 से 60 क्विंटल की उपज प्राप्त हो सकती है। इसका बाजार में भाव करीब 2 लाख रुपए तक प्राप्त हो जाता है। इस हिसाब से देखें तो करेले की खेती से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
अगर आप नए ट्रैक्टर, पुराने ट्रैक्टर, कृषि उपकरण बेचने के इच्छुक हैं और चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा खरीददार आपसे संपर्क करें और आपको अपनी वस्तु का अधिकतम मूल्य मिले तो अपनी बिकाऊ वस्तु को ट्रैक्टर जंक्शन के साथ शेयर करें।