Published - 09 Feb 2022
यूकेलिप्टस यानि सफेदा मिर्टेसी जाति से संबंध रखने वाला एक बहुत ऊंचा पेड़ हैं। इसकी करीब 600 जातियां पाई जाती हैं, जो अधिकांशत: आस्ट्रेलिया और तस्मानिया में पाई जाती हैं। यूकेलिप्टस रेंगनेस इनमें सबसे ऊंची जाति हैं, जिसके पेड़ 322 फुट तक ऊंचे होते हैं। उपयोगिता के कारण यूकेलिप्टस अब अमरीका, यूरोप, अफ्रीका एवं भारत में बहुतायत से उगाया जा रहा है। भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, बिहार, गोआ, गुजरात ,पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पश्चिमी बंगाल और कर्नाटक में होती है। यदि सही तरीके से इसकी खेती की जाए तो इसकी खेती से पांच साल में करीब 50 लाख रुपए की कमाई की जा सकती है। आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से किसानों को नीलगिरी यानि सफेदा की खेती की जानकारी दे रहे हैं।
नीलगिरी या सफेदा के पेड़ से अच्छे प्रकार की इमारती लकड़ी प्राप्त होती है, जो जहाज बनाने, इमारती खंभे, अथवा सस्ते फर्नीचर के बनाने में काम आती है। इसकी पत्तियों से एक शीघ्र उडऩेवाला तेल, यूकेलिप्टस तेल, निकाला जाता है, जो गले, नाक तथा पेट की बीमारियों, या सर्दी जुकाम में औषधी के रूप में प्रयुक्त होता है। इस पेड़ से एक प्रकार का गोंद भी प्राप्त होता है। पेड़ों की छाल कागज बनाने और चमड़ा बनाने के काम में आती है।
नीलगिरी या सफेदा की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली भूमि की आवश्कता होती है। इस पौधे का विकास बीजों और कलम दोनों से ही किया जा सकता है। चूंकि इसके पौधे काफी लंबे होते हैं इसलिए प्राय: इन्हें जमीन में ही रोपा जाता है। पौधे के उचित विकास के लिए इन्हें पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश, हवा और पानी की आवश्यकता होती है।
नीलगिरी के पौधे सामान्य मिट्टी और जलवायु में उगते हैं। इसके लिए 30-35 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। इसके लिए अच्छे जल निकास वाली भूमि होनी चाहिए। पानी का ठहराव इसके लिए अच्छा नहीं होता है। जैविक तत्वों से भरपूर दोमट मिट्टी में इसके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। वहीं पानी सोखने वाली, खारी और नमकीन मिट्टी सफेदे की पैदावार के लिए अच्छी नहीं होती हैं।
भारत में सफेदा की मुख्य रूप से 6 प्रजातियां पाई जाती है। जिनकी अधिकतम उंचाई 80 मीटर तक होती हैं। इन किस्मों में नीलगिरी ऑब्लिव्का, नीलगिरी डेलीगेटेंसिस, नीलगिरी डायवर्सीकलर, नीलगिरी निटेंस, नीलगिरी ग्लोब्युल्स और नीलगिरी विमिनैलिस प्रमुख हैं।
नीलगिरी (सफेदा) की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय सबसे पहले प्लाऊ यंत्र की सहायता से खेत की गहरी जुताई कर लें। इसके बाद खेत में कल्टीवेटर चलाकर दो तिरछी जुताई कर करें। इसके बाद खेत में पाटा चलाकर खेत को समतल कर लें। खेत समतल होने के बाद 5 फिट की दूरी पर एक फिट चौड़ाई और गहराई के गड्डे पंक्तियों में तैयार कर लें। प्रत्येक पंक्तियों के बीच 5 से 6 फिट की दूरी रखें। इन गड्ढ़ों को पौध लगाने से करीब 20 दिन पहले तैयार कर लेना चाहिए।
सफेदा की पौध को खेत में लगाने से पहले गड्ढ़ों में उचित मात्रा में गोबर की खाद डालकर उसे मिट्टी में मिला दें। इसके अलावा इन गड्ढों में 200 ग्राम एन.पी.के. की मात्रा डालकर उसे भी मिट्टी में मिला दें और गड्ढों की सिंचाई कर दें।
नीलगिरी के पौधे को तैयार होने में समय लगता है इसलिए पहले इसके लिए नर्सरी तैयार की जाती है और फिर एक साल बाद इसे खेत में लगाया जा सकता है। नर्सरी में सफेदा की पौध तैयार करने के लिए इसके बीजों को पॉलीथीन में उगाया जाता है। जिसमें गोबर खाद मिली मिट्टी भरी होती हैं। इसकी पौध 5 से 6 महीने में रोपाई के लिए तैयार हो जाती हैं। लेकिन एक साल पुरानी पौध ही खेत में लगानी चाहिए।
नीलगिरी की खेती का उचित समय जून से अक्टूबर तक का होता है।
शुरूआत में नीलगिरी के साथ अंतर-फसलें भी उगाई जा सकती है। अंतर-फसलों के समय फासला 4X2 मीटर (लगभग 600) या 6X1.5 या 8X1 मीटर का फासला रखना चाहिए। हल्दी और अदरक जैसी फसलें या चिकित्सिक पौधे अंतर-फसलों के रूप में लगाएं जा सकते है। वैसे इसकी खेती में 72 X 2 मीटर का फासला ज्यादातर प्रयोग किया जाता है।
शुरुआती समय में खेत को खरपतवार से मुक्त रखना जरूरी होता है। इसलिए समय-समय पर खरपतवार निकालते रहें। इसमें दो से तीन बार गुड़ाई की जरूरत होती है।
मुख्य खेत में पनीरी लगाने के तुरंत बाद सिंचाई करें। मानसून में सिंचाई की जरूरत नहीं होती, पर अगर मानसून में देरी हो जाएं या बढिय़ा तरीके के साथ न हो तो सुरक्षित सिंचाई करें। सफेदा सूखे को सहन करने वाली फसल है, पर उचित पैदावार के लिए पूरे विकास वाले समय में कुल 25 सिंचाइयों की जरूरत होती है। सिंचाई की ज्यादातर जरूरत गर्मियों में और काफी हद तक सर्दियों में होती है।
नीलगिरी के पौधे को लगाने के बाद उसकी देखभाल भी करना जरूरी होता है। अन्य पेड़ों की तरह ही नीलगिरी में भी कीट व रोगों का प्रकोप होता है। इसके लिए हमें समय-समय पर रोकथाम के उपाय करने चाहिए ताकि पैदावार पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े।
नयें पौधे के लिए दीमक बहुत ही गंभीर कीट है, जो फसल को काफी हद तक नुकसान पहुंचाता है। फसल को दीमक से बचाने के लिए निंबीसाइड 2 मि. ली. को प्रति लीटर पानी में मिला कर स्प्रे करें।
इस बीमारी में पौधे के पत्ते सूखने शुरू हो जाते है, विकास रुक जाता है और तने की बनतर भी खराब हो जाती है। इस बीमारी के साथ नुकसान हुए पत्तों का विकास रुक जाता है। अगर इसका हमला दिखाई दें तों पौधे को हटा दें। हमेशा इसकी प्रतिरोधक किस्में ही इस्तेमाल करें।
यदि इसका हमला दिखाई दे तों बोरडिओक्स का घोल जड़ों वाले हिस्सों में डालें।
नीलगिरी की खेती में ज्यादा खर्च नहीं आता है। एक हेक्टेयर में इसके करीब 3 हजार पौधे लगाए जा सकते हैं। नर्सरी में ये पौधे 7-8 रुपए मिल जाते हैं। ऐसे में इनकी खरीद में करीब 21 हजार रुपए का खर्च आता है। अन्य खर्चों को भी जोड़ लिया जाए तो करीब 25 हजार रुपए का खर्च आएगा। 4 से 5 साल बाद हर पेड़ से करीब 400 किलो लकड़ी मिलती है। यानि 3000 पेड़ों से करीब 12,00,000 किलो लकड़ी मिलेगी। यह लकड़ी बजार में 6 रुपए प्रति किलो के भाव से बिकती है। ऐसे में इसको बेचने पर करीब 72 लाख रुपए कमा सकते हैं। अगर कुछ और खर्च निकाल दिया जाए तो इसकी खेती से आप कम-से-कम 60 लाख रुपए 4 से 5 साल में कमा सकते हैं।
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